________________ 57 | 10 जनवरी 2011 | जिनवाणी अभिप्राय यह है कि गुरुदेव को धन्य है जो गोविन्द (परमात्मा) से मिला देता है। गोविन्द वह है जो समस्त दुःखों एवं दोषों से मुक्त है। अर्थात् जो समस्त दुःखों और दोषों से मुक्ति पाने का मार्ग बता दे, वह ही गुरु है। जिसके साथ गोविन्द खड़ा न हो, वह गुरु नहीं है। सच्चा गुरु शिष्य का सम्बन्ध अपने से तोड़कर परमात्मा से जोड़ता है। गुरु का आदर करना शिष्य के लिए हितकारी है / गुणों को धारण करना ही गुरु का आदर है / गुरु का वचन या कथन नहीं मानना गुरु का अनादर है / गुरु ज्ञान स्वरूप है, अतः ज्ञान का अनादर ही गुरु का अनादर है। शिष्य द्वारा गुरु के प्रति कृतज्ञता एवं प्रेम प्रकट करना आवश्यक है। कृतघ्नता भयंकर पाप है। गुरु का यह वैशिष्ट्य है कि वह शिष्य को भी अपने जैसा अथवा अपने से श्रेयान् बना सकता है। गुरु एवं पारस पत्थर में अन्तर बताते हुए कहा गया है पारस में अरू संत में बहुत अन्तरो जान। वह लोहा कंचन करे, वह करै आपुसमान।। पारस पत्थर लोहे को सोना बनाता है, किन्तु अपना पारस नहीं बनाता, किन्तु गुरु शिष्य को अपने समान बना सकता है / इससे गुरु की महत्ता स्पष्ट हो जाती है। -82/ 127, मानसरोवर, जयपुर (राज.) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org