________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी अपने समान सभी महापुरुषों की सेवा में तत्परता के लिये सदा प्रेरित किया, हमें उसी रास्ते चलना है। शिथिलता को, एकल विहार को, अनाचार को प्रोत्साहन देना कभी भी निर्जराकारी सेवा में नहीं आ सकता। आत्महित के साथ ही सुख का चिन्तन करने वाला इन्द्र भी भवी, शुक्ल पक्षी, सम्यग्दृष्टि, परीत, चरम जिनेन्द्र भगवान द्वारा बतलाया जाता है। उस उदारवादी दृष्टिकोण से ही आत्मा का हित सधने वाला है। __ हमें किसी परम्परा में दोष नहीं बखानने हैं। गलती से अपने को बचाना ही है। सारे साधुओं को गुरु की बात कह एक गुरु को सिद्धान्त विरोधी कहना और बात है, पर सिद्धान्त के अनुरूप क्या वे अपनी परम्परा के मान्य गुरुओं के अतिरिक्त ठहरने का स्थान देने, भिक्षा बहराने को भी तत्पर रहते हैं? वहाँ हमें तो गुरु भगवंतों के सिद्धान्त पर ही चलना है। सामायिक, दया, पौषध, प्रतिक्रमण अपने गुरु की धारणा से कर प्रवचन, भिक्षा, सेवा से समिति-गुप्ति, आराधक प्रत्येक पंच महाव्रत धारी की सेवा करनी ___भंते' बोलते समय आपके मन में गुरु के प्रति श्रद्धा-भक्ति तो हो ही, मन में प्रमोद का भाव भी हो। आचार्यश्री के दर्शन आपकी भक्ति जगाने वाले हैं। सुदर्शन सेठ के माता-पिता कह रहे हैंभगवान आए हैं तो क्या, तू वहाँ मत जा, भगवान तो घट-घट की जानते हैं, तेरा वन्दन यहीं से स्वीकार कर लेंगे। माता-पिता प्राणों के संकट का वास्ता देकर रोकना चाहते हैं, पर सुदर्शन कहता है घर से जो वन्दू तो देखू कैसे तुझाको। मुग्दरपाणी से डर नहीं मुझको।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org