________________ * प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. * 341 1. वाचना-शास्त्र आदि की वाचना देना अथवा लेना, 2. पृच्छाअज्ञात विषय में पूछना तथा पठित का आवर्तन करना, 3. अनुपेक्षा, 4. मनन और 5. धर्म कथा, इस प्रकार स्वाध्याय पाँच प्रकार का होता है। स्वाध्याय शुभ ध्यान का आलम्बन है, अतः स्वाध्याय के बाद ध्यान कहा जाता है: अटूटरुद्दाणि वज्जित्ता, झाएज्जा सुसमाहिए / धम्मसुक्काइं झाणाई, झाणं तं तु वुहा वए / / 35 / / प्रार्त एवं रौद्र ध्यान को छोड़कर उत्तम समाधि वाला साधक धर्म और शुक्ल ध्यान का चिन्तन करे, ज्ञानियों ने इसको ध्यान तप कहा है। अन्तिम आभ्यन्तर तप व्युत्सर्ग है, इसका स्वरूप निम्न प्रकार है : सयणासणठाणे वा, जे उ भिक्खू न वावरे / कायस्स विउस्सग्गो, छट्टो सो परिकित्तिो // 36 // बैठने, खड़े रहने या सोने में जो साधक किसी प्रकार की चेष्टा नहीं करे, यह छठा काय का व्युत्सर्गरूप तप कहा गया है। सामान्य रूप से द्रव्य और भाव, व्युत्सर्ग के दो प्रकार हैं। द्रव्य व्युत्सर्ग चार प्रकार का है- 1. गण, 2. देह, 3. उपधि और 4. भक्त पान / भाव में क्रोध-मान-माया-लोभ का त्याग करना भाव व्युत्सर्ग है। इस प्रकार बाह्य और आन्तर तप को मिला कर 12 भेद होते हैं। ___ तपस्या का वर्णन करके अब सुधर्मा स्वामी म० इसका उपसंहार कहते हैं: एवं तवं तु दुविहं, जे सम्म आयरे मुणी। सो खिप्पं सव्व संसारा, विप्प मुच्चइ पण्डिओ // 37 // इस प्रकार बाह्य और प्रान्तर रूप दो प्रकार के तप को जो मुनि सम्यग् प्रकार से आराधन करता है, वह पण्डित मुनि नरकादि चतुर्गति रूप संसार से शीघ्र ही मुक्त हो जाता है / अर्थात् कर्म क्षय हो जाने से उसको फिर जन्म-मरण के चक्र में आना नहीं पड़ता है। हे जम्बू ! मैं कहता हूँ कि यही कल्याणकारी शुद्ध तप का मार्ग है। 000 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org