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प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
वह सपरिकर्म और दूसरा काय चेष्टा रहित अपरिकर्म होता है । डाल की तरह अपरिकर्म वाला शरीर से निश्चल रहता है । व्याघात एवं निर्व्याघात की दृष्टि से भी इनके भेद होते हैं । नीहारी और अनिहारी दोनों प्रकार के अनशन में आहार का त्याग होता ही है । अनशन करने का सामर्थ्य नहीं हो, उसके लिए दूसरा तप ऊनोदर बतलाते हैं :
प्रोमोयरणं पंचहा, दव्वनो खेत्तकालेणं,
समासेण भावेण
वियाहियं ।
पज्जवेहिय || १४ ||
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दूसरा तप अवमोदर्य संक्षेप में पांच प्रकार का कहा गया है, यथा ( १ ) द्रव्य प्रमोद (२) क्षेत्र प्रवमोदर्य ( ३ ) काल अवमोदर्य ( ४ ) भाव अवमोदर्य और (५) पर्यववमोदर्य ।
इनका विशेष स्पष्टीकरण कहते हैं :
जो जस्स उ आहारो, तत्तो प्रोमं तू जो करे ।
जन्न रोगसित्थाई, एवं दव्वेण ऊ भवे ।। १५ ।।
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जिसका जितना आहार हो, उसमें कुछ कम करना जघन्य एकसीत घटाना आदि - यह द्रव्य से अवमोदर्य है । अपनी खुराक में एक ग्रास भी कम किया जाय, तो वह तप है । कितना सरल मार्ग है ।
क्षेत्र आदि से अवमोदर्य का विचार करते हैं :
गामे नगरे तह रायहाणि, निगमे य आगरे पल्ली । खेडे कब्बड - दोमुह, पट्टण - मडम्ब -संवाहे ॥ १६ ॥
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ग्राम, नगर तथा राजधानी में निगम - व्यवसायियों की मंडी, आकर और पल्ली में, खेड - जो धूलि के कोट से घिरा हो, कर्बट, द्रोणमुख, पत्तन और मंडव में क्षेत्र की मर्यादा करके भिक्षा जाना ।
आसमपए विहारे, सन्निवेसे समायघोसे य । थलिसेणाखन्धारे, सत्थे संवट्टकोट्टे य ।।१७।।
आश्रम पद - तापस आदि का आश्रम, विहार, सन्निवेश और घोष आदि स्थानों में नियत मर्यादा से भिक्षा लेना भी अवमोदर्य है, जैसे :
वाडेसु व रत्थासु व, घरेसु वा एवमित्तियं खेत्तं । कप्पइ उ एवमाई, एवं खेत्तेण उ भवे ।। १८ ।।
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