________________
• ३३६
• व्यक्तित्व और कृतित्व
इत्तरिय मरणकाला य, अणसणा दुविहा भवे ।
इत्तरिय सावकंखा, निरवकंखा उ विइज्जिया ॥६॥ अनशन के इत्वर-अल्पकालिक और मरणकाल पर्यन्त ऐसे दो भेद होते हैं। इत्वर-तप सावकांक्ष होता है, नियतकाल के बाद उसमें आहार ग्रहण किया जाता है, पर दूसरा निरवकांक्ष होता है, उसमें जीवन पर्यन्त सम्पूर्ण आहार का त्याग होता है। इत्वर तप के भेद :
जो सो इत्तरियतवो, सो समासेण छब्बि हो।
सेढितवो पयरतवो, घणो य तह होइ वग्गो य ।।१०।। इत्वर तप संक्षेप से छः प्रकार का है, जैसे-१. श्रेणि तप (उपवास आदि क्रम से छः मास तक), २. प्रत्तर तप, ३. घन तप, ४. तथा वर्ग तप होता है।
तत्तो य वग्गवग्गो, पंचमी छट्टों पइण्णतवो।
मणइच्छियचित्तत्थो, नायव्वो होय इत्तरियो ।।११।। फिर पाँचवाँ वर्ग तप और छठा प्रकीर्ण तप होता है, इस प्रकार इत्वर तप, साधक की इच्छा के अनुकूल और विचित्र अर्थ वाला समझना चाहिये। इससे लोक एवं लोकोत्तर के विविध लाभ होते हैं ।
मरणकाल :
जा सा अणसणा मरणे, दुविहा सा वियाहिया ।
सवियार मवियारा, कायचिट्ठ पइ भवे ।।१२।। मरणकाल में जो अनशन किया जाता है, वह दो प्रकार का कहा गया है-काय चेष्टा को लेकर एक सविचार और दूसरा अविचार-चेष्टा रहित होता है। प्रकारान्तर से अनशन को समझाते हुए कहा है :
अहवा सपरिकम्मा, अपरिकम्मा य आहिया ।
नीहारिमनीहारी, आहारच्छेप्रो दोसु वि ।।१३।। आजीवन अनशन प्रकारान्तर से दो प्रकार का-संपरिकर्म और अपरिकर्म रूप से कहा गया है। शरीर की उत्थान आदि क्रिया और जिसमें सम्भाल की
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org