________________ * 264 * व्यक्तित्व एवं कृतित्व है। साधु-साध्वियों के अभाव में भी वाचन की परम्परा रहने से धर्म स्थान सदा मुक्त द्वार रह सकता है / बिना साधुओं के आर्य समाज, ब्रह्म समाज और सिक्ख आदि अमूर्ति पूजक संघ स्वाध्याय से ही प्रगतिशील दिख रहे हैं / यह गृहस्थ समाज में धर्म शिक्षा के प्रसार का ही फल है। स्थानकवासी जैन समाज को तो साधुजनों के अतिरिक्त श्रुत स्वाध्याय का ही प्रमुख आधार है। अतः साधु संख्या की अल्पता और विशाल धार्मिक क्षेत्र को देखते हए यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होता कि श्रावक समाज ने स्वाध्याय का उचित प्रसार नहीं किया तो संघ का भबिष्य खतरे से खाली नहीं होगा। ज्ञाता धर्म कथा में नंदन मणियार का वर्णन आता है। भगवान महावीर का शिष्य होकर भी वह साधुओं के दर्शन नहीं होने से, सेवा और शिक्षा के अभाव से सम्यक्त्व पर्याप्त से गिर गया, सत्संग या स्वाध्याय के द्वारा धर्म शिक्षा मिलती रहती तो यह परिणाम नहीं आता और न उसे आर्त भाव में मरकर दुर्दुरयोनि में ही जाना पड़ता। वर्तमान के श्रावक समाज को इससे शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये। शास्त्र वाचन में योग्यता : षडावश्यक में सामायिक प्रतिक्रमण और जीवादि तत्त्वों की जानकारी तो सामान्य स्वाध्याय है, उसके लिए खास अधिकारी का प्रश्न नहीं होना पर विशिष्ट श्रुत को वाचना के लिए योग्यता का विचार किया गया है। शास्त्र पाठक में विनय, रस-विजय और शांत स्वभाव होना आवश्यक माना गया है / शास्त्रकारों का स्पष्ट आदेश है कि-अविनीत, रस लम्पट और कलह को शांत नहीं करने वाला शास्त्र वाचन के योग्य नहीं होता / जैसे कहा है-१. तोनो क प्पंति वाइत्तए-२. अविणीए विगह पडिवद्व-३. अवि उसवियपा हुड़े / स्थ० और वृह० / वाचना प्रेमी को प्रथम शास्त्र वाचना की भूमिका प्रदत करके फिर विद्वान मुनि या अनुभवी स्वाध्यायी के आदेशानुसार उत्तराध्ययन, आवश्यक सूत्र या उपासक दशा, दशाश्रुतकंन्थ आदि से वाचन प्रारम्भ करना चाहिए और शास्त्र के विचारों को शास्त्रकार की दृष्टि से अनुकूल ही ग्रहण करने का प्रयास करना चाहिये / शास्त्र में कई ज्ञय विषय और अपवाद कथन भी आते हैं, वाचक को गम्भीरता से उनका पठन-पाठन करना चाहिये, तभी स्वाध्याय का सच्चा प्रानन्द अनुभव कर सकेंगे। 000 Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org