________________ * प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. * 161 ध्यान-साधना के विषय में प्राचार्यश्री के विचार-ध्यान साधना क्या है, इस सम्बन्ध में प्राचार्यश्री ने बताया-ध्यान वह साधना है जो मन की गति को अधोमुखी से ऊर्ध्वमुखी एवं बहिर्मुखी से अन्तर्मुखी बनाने में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है / इसे आंतरिक तप माना गया है / ध्यान से विचारों में शुद्धि होती और उनकी गति बदलती है।' वैदिक परम्परा में योग या ध्यान चित्तवृत्तियों के निरोध को माना है परन्तु जैन दृष्टि में चित्तवृत्तियों का सब तरफ से निरोध करके किसी एक विषय पर केन्द्रित कर उस पर चिंतन करना ध्यान है / आचार्यश्री के अनुसार परम तत्त्व के चितन में तल्लीनतामूलक निराकुल स्थिति को प्राप्त करवाने वाला ध्यान ही यहाँ इष्ट है / 2 प्राचार्यश्री के अनुसार ध्यान का प्रारम्भ अनित्यादि भावनाओं (अनुप्रक्षाओं) के चिंतन से होता है। उन्होंने ध्यान की 4 भूमिकाएँ बताई3-(i) संसार के पदार्थों से मोह कम होने पर मन की चंचलता कम होना (ii) चिंतनमैंने क्या किया ? मुझे क्या करना शेष है ? (iii) आत्मस्वरूप का अनुप्रेक्षण (iv) राग-रोष को क्षय कर निर्विकल्प समाधि प्राप्त करना / उन्होंने ध्यान के लिए जितेन्द्रिय और मंदकषायी होना आवश्यक बताया। उनका विचार था कि ध्यान के लिए कोई तब तक अधिकारी नहीं होता जब तक हिंसादि 5 प्रास्रब और काम, क्रोध को मंद नहीं कर लेता। ___ साधक संघ के सदस्यों को ध्यान में पंच परमेष्ठी के गुणों का चिंतन करते हए वैसा ही बनने की भावना करना तथा अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व और अन्यत्व भावनाओं के चिंतन करने का निर्देश दिया गया था। आचार्यश्री के अनुसार ध्यान साधना की विभिन्न पद्धत्तियाँ अभ्यासकाल में साधना के प्रकार मात्र ही हैं, स्थायित्व तो वैराग्यभाव की दृष्टि से चित्तशुद्धि होने पर ही हो सकता है। साधना की कितनी ही गहन-गंभीर व्याख्या कर दी जाय परन्तु साधक लाभान्वित तभी होंगे जब वे उसे आत्मसात करें क्योंकि साधना अंततोगत्वा अनुभव है, अनुभूति है, बौद्धिकता नहीं। --35, अहिंसापुरी, फतहपुरा, उदयपुर-३१३००१ 1. जिनवाणी, ध्यान विशेषांक, जन., फर., मार्च 1672, पृ. 10 2. जिनवाणी, ध्यान विशेषांक, पृ. 11 3. जिनवाणी, ध्यान विशेषांक, पृ, 15-16 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org