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आचार्य श्री की काव्य-साधना
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आचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. भारतीय सन्त परम्परा के विशिष्ट ज्ञानी, ध्यानी साधक, उत्कृष्ट क्रियाराधक और "जिनवाणी" के महान् उपासक, संवेदनशील साहित्यकार थे । आपको धार्मिक, आध्यात्मिक संस्कार विरासत में मिले । जब आप गर्भ में थे, तभी प्लेग की चपेट में आ जाने से आपके पिता चल बसे । माँ ने बड़े धैर्य और शांतिपूर्वक धर्माराधना करते हुए आपका लालन-पालन किया । सात वर्ष बाद प्लेग का पुनः प्रकोप हुआ, जिसमें आपके नाना और उनके परिवार के सात सदस्य एक-एक कर चल बसे । जिस परिस्थिति में आपका जन्म और बचपन बीता, वह प्लेग जैसी महामारी और भयंकर दुर्भिक्ष से ग्रस्त थी । लोग अत्यन्त दुःखी, अभाव ग्रस्त और असहाय थे | समाज बाल-विवाह, मृत्यु-भोज, पर्दा प्रथा, अंधविश्वास आदि कुरीतियों और मिथ्या मान्यताओं से जकड़ा हुआ था । जात-पांत, छुआछूत और ऊँच-नीच के विभिन्न स्तरों में समाज विभक्त था । नारी की स्थिति अत्यन्त दयनीय थी । ब्रिटिश शासन, देशी रियासती नरेश और जमींदार ठाकुरों की तिहरी गुलामी से जनता त्रस्त थी । बालक हस्ती के अचेतन मन पर इन सबका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था । इन कठिन परिस्थितियों का बड़े धैर्य और साहस के साथ मुकाबला करते हुए बालक हस्ती ने अपने व्यक्तित्व का जो निर्माण किया, वह एक ओर करुणा, दया, प्रेम और त्याग से आर्द्र था, तो दूसरी ओर शौर्य, शक्ति, वल और पराक्रम से पूरित था ।
[ डॉ० नरेन्द्र भानावत
साधु-सन्तों के संपर्क से और माँ के धार्मिक संस्कारों से बालक हस्ती पर वैराग्य का रंग चढ़ा और अपनी माँ के साथ ही ऐसे सन्त मार्ग पर वह बढ़ चला मात्र 10 वर्ष की अवस्था में, जहाँ न कोई महामारी हो, न कोई दुर्भिक्ष । प्राचार्य शोभाचन्दजी म. के चरणों में दीक्षित बाल - साधक सन्त हस्ती को ज्ञान, क्रिया और भक्ति के क्षेत्र में निरन्तर प्रगति करने का समुचित अवसर मिला । साधना के साथ स्वाध्याय और स्वाध्याय के साथ साहित्य-सृजन की प्रेरणा विरासत में मिली ।
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आचार्य श्री हस्तीमलजी म. जैन धर्म की जिस स्थानकवासी परम्परा से सम्बन्धित थे, उसके मूल पुरुष प्राचार्य कुशलोजी हैं । कुशलोजी के गुरु भ्राता आचार्य जयमलजी उच्चकोटि के कवि थे । कुशलोजी के शिष्य श्राचार्य
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