________________ 314 ] [ कर्म सिद्धान्त पुद्गलों का प्रास्रव हमारे शारीरिक, मानसिक, वाचिक हलन-चलन द्वारा होता है। आस्रव के अन्य कई कारण जैन शास्त्रों में वर्णित हैं / आस्रवित पुद्गल काम, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि "कषायों" और बुरी भावनाओं द्वारा "बंध" में परिणत हो जाते हैं / ये बंध कुछ क्षणिक, कुछ अर्ध स्थायी और कुछ स्थायी होते हैं। ये सभी कुछ, रासायनिक पद्धति द्वारा, शरीर से कर्म कराने की व्यवस्था करते हैं / अच्छे कर्म पिण्ड अच्छा कर्म और बुरे कर्म पिण्ड बुरा कर्म प्रभावित करते हैं। आत्मा स्वयं कुछ नहीं करता वह तो शुद्ध, बुद्ध, ज्ञानमय है। परन्तु उसकी उपस्थिति में ही कर्म होते हैं अन्यथा तो शरीर निर्जीव अचेतन, जड़ ही है। हम जो कुछ भी करते हैं-देखते-सुनते हैं सभी कुछ पुद्गल निर्मितपुद्गलमय होते हैं। इन्हें जैन वाङ्गमय में “व्यवहार" कहा गया हैं / “निश्चय" तो केवलमात्र आत्मा या आत्मा में लीन हो जाना ही हैं। एकाग्रता से एक ही प्रकार का कर्मास्रव होता है। आत्मा में ध्यान लगाने से चिन्ता, माया, मोह आदि से निलिप्त होने से कर्म पुद्गलों का आगमन और बंध एकदम रुक जाता है। इतना ही नहीं पुद्गल पिण्डों में से पुद्गल परमाणु निःसृत होते हैं / उनसे कर्मों की “निर्जरा" भी होती है। जिससे आत्मा की शुद्धता, कर्मों या कर्म अनंतकालिक परंपरा से चले आते कौटुम्बिक अथवा सामाजिक प्रचलनों में फंसे लोग “अज्ञान" में ही पड़े रहकर सच्चे ज्ञान और सच्चे धर्म की शिक्षा की प्राप्ति नहीं कर पाते हैं / इसके लिए सभी को षद्रव्य, सप्ततत्त्व, नवपदार्थ-जैसा जैन सिद्धान्त में वर्णित है, उसकी जानकारी आवश्यक है। पर जैन सिद्धान्तों का तीव्र विरोध स्वार्थी लोगों ने इतना फैला रखा है कि इनका ज्ञान विरले लोगों को ही हो पाता है। जैन समाज भी इन तत्त्वों का प्रचार-प्रसार उचित रीति से नहीं करता, इससे संसार अव्यवस्था, अनीति और अनाचार एवं दुःखों से भरा हुआ है। सरल भाषा में सरल शब्दावली लिए यदि जैनदर्शन और सिद्धान्त की पुस्तकें लिखकर सस्ते दामों में प्रचारित की जाएं तो संसार का बड़ा भला हो / अभी तो हमारे श्रीमंत, पंडित, और गुरु मुनि लोगों का ध्यान इधर गया ही नहीं तो क्या हो? जैन समाज को जैन तत्त्वों के प्रचार-प्रसार पर मंदिर-निर्माण से अधिक खर्च करना चाहिए। इसी से सबका सच्चा भला होगा। जैन मंदिरों और संस्थाओं में तो रुपया बहुत इकट्ठा है पर उस धन का सदुपयोग नहीं हो पाता / प्रति वर्ष मूर्ति प्रतिष्ठा, कल्याणक महोत्सव आदि समारोहों पर लाखों रुपया इकट्ठा होता है, पर क्या इन रुपयों का एक फीसदी भी तत्त्व-ज्ञान के प्रचार-प्रसार में खर्च होगा? यदि यह धन ईंट, पत्थर, मंदिर, मूर्ति तथा इमारतों में न लगाकर प्रचार में उचित रीति से खर्च किया जाय तो समाज, देश, विश्व और मानवता का कितना भला हो ! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org