________________ 304 ] [ कर्म सिद्धान्त व्यवस्था मानवीय समाज एवं व्यापार की समझ में आधारभूत स्थान रखती है। राजा का कर्तव्य न केवल दण्ड नीति द्वारा दुष्टों को दण्ड देकर मर्यादा को स्थापित करना, अपितु सभी वर्गों के त्रिवर्ग की रक्षा करना भी था। पूर्वापेक्षा यह लगती है कि सभी सदस्य अपना-अपना कर्त्तव्य शास्त्रविहित रूप में नहीं निभायेंगे, तथा एक दूसरे के धर्म क्षेत्रों में हस्तक्षेप करेंगे तो ऐसी अव्यवस्था जन्म लेगी जिसमें कोई व्यक्ति धर्म, अर्थ, काम की सिद्धि नहीं कर सकेगा। व्यक्ति का कल्याण तथा एक निश्चित सामाजिक संरचना परस्पर इतने घनिष्ठ रूप में सम्बन्धित हैं कि एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती। पृथ्वी पर राजा तथा परलोक में देवता इस संरचना की रक्षा करते हैं / यह कल्पना बड़ी मोहक है, परन्तु फिर यही प्रश्न उठता है कि किसी भी समय समाज में विघटन आरम्भ ही कैसे हुआ? यहां महाभारत का सन्दर्भ देकर हमारा उद्देश्य महाभारत के मनीषियों के विचारों की मीमांसा नहीं है, अपितु केवल इस ओर ध्यान आकर्षित करना है कि कर्मफल की संगति का प्रश्न सामाजिक संरचना के प्रश्न से जुड़ा हुआ है / निष्कर्ष के रूप में हम यह कह सकते हैं कि कर्मफल की संगति के विषय में हमें असन्तोष इसलिए होता है कि हम प्रथम तो कर्म को एक ऐसी सरल शृखला के रूप में देखते हैं जो एक निश्चित आदि तथा अन्त रखती है, दूसरे इस शृंखला को हम एक अन्य शृखला अर्थात् कारण-कार्य की शृंखला के उदाहरण के रूप में ले लेते हैं जहाँ हम दो घटनाओं में सीधे एक निश्चित संबंध मान बैठते हैं / दोनों ही अपेक्षाएं अनुचित हैं / कार्य तथा फल एक ही चीज नहीं है, दूसरे कर्म की आवश्यकता तथा पर्याप्त अवस्थाएँ हमें कर्म को एक जटिल व्यवस्था के अंग के रूप में देखने के लिए बाध्य करती हैं। जिस कार्य का सम्बन्ध वर्तमान से हो, जिसके बिना किये किसी प्रकार न रह सकें, जिसके सम्पादन के साधन उपलब्ध हों, जिससे किसी का अहित न हो, ऐसे सभी कार्य प्रावश्यक कार्य हैं। आवश्यक कार्य को पूरा न करने से और अनावश्यक कार्य का त्याग न करने से कर्ता उद्देश्य-पूर्ति में सफल नहीं होता। अतः मानव मात्र को अनावश्यक कार्य का त्याग और आवश्यक कार्य का सम्पादन करना अनिवार्य है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org