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आधुनिक हिन्दी महाकाव्यों में कर्म एवं पुनर्जन्म की
अवधारणा
जैन दर्शन में कर्म का महत्त्वपूर्ण स्थान है । कर्म अनन्त परमाणुओं के स्कन्ध हैं । वे समूचे लोक में जीवात्मा की अच्छी-बुरी प्रवृत्तियों के द्वारा उसके साथ बंध जाते हैं । यह उनकी बंध्यमान अवस्था है । बंधने के बाद उनका परिपाक होता है । यह सत् (सत्ता) अवस्था है । परिपाक के बाद उनसे सुख-दुःख एवं कर्मानुसार अच्छा-बुरा फल मिलता है । यह कर्मों की उदयमान (उदय) अवस्था है ।
D डॉ० देवदत्त शर्मा
जैन दर्शन की मान्यताओं के अनुसार जीव कर्म करने में स्वतंत्र है किन्तु कर्मफल भोगने में परतंत्र है । अर्थात् फल देने की सत्ता कर्म अपने पास सुरक्षित रखता है । इस प्रकार जीव जो भी शुभाशुभ कर्म करता है उसके फल को भोगना आवश्यक है ।
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पुद्गल द्रव्य की अनेक जातियाँ हैं जिन्हें जैन दर्शन में वर्गणाएँ कहते हैं । उनमें एक कार्मरण वर्गणा भी है और वही कर्म द्रव्य है । कर्म द्रव्य सम्पूर्ण लोक में 'सूक्ष्म रज के रूप में व्याप्त है । वही कर्म द्रव्य योग के द्वारा आकृष्ट होकर जीव के साथ बद्ध हो जाते हैं और कर्म कहलाने लगते हैं । ये जीव के अध्यवसायों और मनोविकारों की तरतमता के कारण अनेक प्रकार के हो जाते हैं | परन्तु स्वभाव के आधार पर कर्म के आठ विभाग किये जा सकते हैं जो इस प्रकार हैं - १. ज्ञानावरण, २. दर्शनावरण, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयुष्य, ६. नाम, ७. गोत्र तथा ८. अन्तराय ।
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जो कर्म-पुद्गल हमारे ज्ञान तन्तुनों को सुप्त और चेतना को मूच्छित बना देते हैं, वे ज्ञानावरणीय कर्म कहलाते हैं । ये पाँच प्रकार के हैं— मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्यायज्ञानावरण तथा केवलज्ञानावरण । जो कर्म श्रात्मा के दर्शन गुण का बाधक हो वह दर्शनावरण कहलाता है । यह नौ प्रकार का होता है । सुख-दुःखानुभूति वेदनीय कर्म के द्वारा होती है । सम्यक् दर्शन का प्रादुर्भाव न होने देना या उसमें विकृति उत्पन्न करना मोहनीय कर्म का काम है । इसके अट्ठाईस भेद हैं । आयु कर्म जीव को मनुष्य, तिर्यञ्च, देव और नारकी के शरीर में नियत अवधि तक कैद रखता है । प्राणी
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