________________
२७
मसीही धर्म में कर्म की मान्यता
समस्त धर्मों में कर्म के प्रत्यय को स्वीकार किया गया है किन्तु उसकी मान्यता प्रत्येक धर्म में विभिन्न प्रकार की है । हिन्दू धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म में कर्म की प्रधानता इतनी अधिक है कि उसी के आधार पर पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार किया गया है। यदि तीनों धर्मों का निष्कर्ष निकाला जावे तो यह विदित होता है कि कर्मों से छुटकारा पाना ही मोक्ष, निर्वाण और कैवल्य है । दूसरे शब्दों में कर्म की विवेचना यह हो सकती है कि कर्म, कार्य और कारण का ही रूप है जो कभी भी समाप्त नहीं होता । इसी कारण कर्मों का विभाजन शुभ और अशुभ रूप से यह ध्यान में रखकर किया जाता है कि मनुष्य जो कुछ बोता है, वही काटता है ।
डॉ. ए. बी. शिवाजी
मसीही धर्म में यद्यपि कर्म को मान्यता दी है जैसा कि पौलुस लिखता है – “ वह हर एक को उसके कामों के अनुसार बदला देगा ।"१ नये नियम में ही एक अन्य स्थान पर पौलुस लिखता है - "धोखा न खाओ, परमेश्वर ठट्टों में नहीं उड़ाया जाता, क्योंकि मनुष्य जो कुछ बोता है वही काटेगा ।" अर्थात् कर्म मनुष्य करता है और कर्म का न्याय कोई अदृष्ट शक्ति करती है, जिसको परमेश्वर, ईश्वर, भगवान् कहते हैं । जैन धर्म और बौद्ध धर्म में तो ईश्वर को भी मान्यता प्राप्त नहीं है । इस कारण मनुष्य ही अपने कर्मों को स्वतंत्र रूप से करता है और उनके परिणामों को भोगता है, किन्तु मसीही धर्म में कर्म के साथ विश्वास और ईश्वर के अनुग्रह पर जो प्रभु यीशु मसीह के द्वारा प्राप्त होता है, जोर दिया जाता है जिसका हम आगे चलकर अध्ययन करेंगे ।
हिन्दू धर्म और जैन धर्म में कर्म विषयक भिन्नता :
हिन्दू धर्मावलम्बी की मान्यता यह है कि कर्म अमूर्त है जबकि जैन धर्म की विचारधारा के अनुसार कर्म मूर्त है ।
Jain Educationa International
हिन्दू धर्म और जैन धर्म में कर्मों की मान्यता विषयक दूसरी भिन्नता स्मृति से सम्बन्ध रखती है । हिन्दू धर्मावलम्बी यह मानते हैं कि माया के कारण पूर्व जन्म में किये हुए कर्म याद नहीं रहते जबकि जैन धर्म के मतानुसार स्मृति अज्ञान
१. रोमियो २ : ६
२. गलतियो ६ : ७
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org