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कर्म, कर्मबन्ध और कर्मक्षय ]
दर्शनावरणीय कर्म :
कर्म-शक्ति युक्त परमाणुओं का वह समूह जिसके द्वारा आत्मा का अनन्त दर्शन स्वरूप अप्रकट रहता है, दर्शनावरणीय कर्म कहलाता है । इस कर्म के कारण आत्मा अपने सच्चे स्वरूप को पहिचानने में सर्वथा असमर्थ रहता है । फलस्वरूप वह मिथ्यात्व का आश्रय लेता है ।
मोहनीय कर्म
इस कर्म के अन्तर्गत वे कार्मण वर्गणाएँ आती हैं जिनके द्वारा जीव में मोह उत्पन्न होता है । यह कर्म आत्मा के शान्ति सुख- प्रानन्द स्वभाव को विकृत करता है । मोह के वशीभूत जीव स्व-पर का भेद - विज्ञान भूल जाता है । समाज में व्याप्त संघर्ष इसी के कारण हैं ।
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अन्तरराय कर्म :
आत्मा में व्याप्त ज्ञान दर्शन श्रानन्द के अतिरिक्त अन्य सामर्थ्य शक्ति को प्रकट करने में जो कर्म परमार बाधा उत्पन्न करते हैं, वे सभी अन्तराय कर्म के अन्तर्गत आते हैं । इस कर्म के कारण ही आत्मा में व्याप्त अनन्त शक्ति का हा होने लगता है । आत्म-विश्वास की भावनाएँ, संकल्प शक्ति तथा साहस- वीरता आदि मानवीय गुण प्रायः लुप्त हो जाते हैं ।
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नाम कर्म :
इस कर्म के द्वारा जीव एक योनि से दूसरी योनि में जन्म लेता है तथा उसके शरीरादि का निर्माण भी इन्हीं कर्म वर्गगानों के द्वारा हुआ करता है । गोत्र कर्म :
कर्म परमाणुओं का वह समूह जिनके द्वारा यह निर्धारित होता है कि जीव किस गोत्र, कुटुम्ब, वंश, कुल-जाति तथा देश आदि में जन्म ले, गोत्र कर्म कहलाता है । ये कर्म - परमाणु जीव में अपने जन्म की स्थिति के प्रतिमान - स्वाभिमान तथा ऊँच-नीच - हीन भाव आदि का बोध कराते हैं ।
वेदनीय कर्म :
आयु कर्म :
इस कर्म के माध्यम से जीव की आयु निश्चित हुआ करती है । स्वग मनुष्य - तिर्यञ्च नरक गति में कौनसी गति जीव को प्राप्त हो, यह इसी कर्म पर निर्भर करता है ।
करता है ।
इस कर्म के द्वारा जीव को सुख-दुःख की वेदना का अनुभव हुआ
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