________________ 76 ] [ कर्म सिद्धान्त ..२१-न कर्मात्म गुणोऽमूर्ते स्तस्य बन्धाप्रसिद्धितः / अनुग्रहोपघातौ हि नामूर्तेः कर्तुमर्हति / / -तत्त्वार्थसार, पंचमाधिकार, श्लोकांक 14, पृष्ठांक 143 २२–प्रौदारिकादि कार्याणां कारणं कर्मभूतिमत / न ह्ममूर्तन मूर्तानामारम्भः क्वापि दृश्यते // -तत्त्वार्थसार, पंचाधिकार, श्लोकांक 15, पृष्ठांक 143 २३–तत्त्वार्थसार, पंचमाधिकार, वही, श्लोकांक 16-20, पृष्ठ 144-145 003 कर्म-सूक्तियाँ सकम्मुणा किंच्चई पावकारी, कडारण कम्माण ण मोक्ख अस्थि / -उत्तराध्ययन 4 / 3 पापात्मा अपने ही कर्मों से पीड़ित होता है, क्योंकि कृतकर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं है। पक्के फलम्हि पडिए, जह ण फलं बज्झए पुरणो विटे। जीवस्स कम्मभावे, पडिए ण पुणोदयभुवेई // -समयसार 168 जिस प्रकार पका हुआ फल गिर जाने के बाद पुनः वृन्त से नहीं लग सकता, उसी प्रकार कर्म भी आत्मा से विमुक्त होने के बाद पुन, आत्मा (वीतराग) को नहीं लग सकते। रागो य दोसो वि य कम्मबीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति / कम्मं च जाईमरणस्स मूलं, दुक्खं च जाईमरणं वयंति // -उत्तराध्वयन 3217 राग और द्वेष ये दो कर्म के बीज हैं / कर्म मोह से उत्पन्न होता है / कर्म ही जन्म-मरण का मूल है और जन्म-मरण ही वस्तुतः दुःख है / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org