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________________ 70 ] [ कर्म सिद्धान्त दूसरों से कराना, अनुमोदना अर्थात् करते हुए दूसरों को अनुमति देना तथा कषाय अर्थात् क्रोध, मान माया तथा लोभ तथा तीव्र-मंद आदि भावों से यह एक सौ आठ भेद रूप भी माना जाता है। अर्थात् मनवचनकाया-३ x समारम्भादि-३४ कृतकारित-३ x क्रोधादिकषाय-४ = 108 / __ इन कारणों से आए हुए कर्म पुद्गल परमाणु आत्मा के साथ एकमेव हो जाने से बंध तत्त्व का रूप ग्रहण हो जाता है। कर्म और उसके व्यापार विषयक संक्षेप में चर्चा करने से ज्ञात होता है कि कर्म एक महान शक्ति है। विधि, स्रष्टा, विधाता, दैव, पुराक्रत कर्म और ईश्वर ये सब कर्म के पर्याय हैं। कर्म:बंध संसार का भ्रमण का कारण है / कर्म क्षय कर अर्थात् कर्म-मुक्ति होना वस्तुतः मोक्ष को प्राप्त करना है। कर्म के दोहे ढाई अक्षर नाम के, अंतर तू पहचान / एक देत है नर्क गति, दूजा शिव सुखधाम / / को सुख को दुःख देत है, देत कर्म झकझोर उलझे-सुलझे आपही, ध्वजा पवन के जोर // कर्म कमण्डलु कर लिये, तुलसी जहँ तहँ जात / सागर सरिता कूप जल,, अधिक न बूंद लगात // राम किसी को मारे नहीं, मारे सो नहीं राम / आपो आप मर जायेगा, कर-कर खोटा काम // आडी न आवे मायड़ी, पाड़ो न आवे बाप / क्रिया कर्म जो भोगवे, भुगते आपो आप // प्लेटफार्म पर हैं खड़े, सरखे लोग हजार / किन्तु मिलेगी क्लास तो, टिकटों के अनुसार // Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229856
Book TitleKarm aur Uska Vyapar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasagar Prachandiya
PublisherZ_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf
Publication Year1984
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size699 KB
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