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कर्म-विमर्श ]
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के संस्कार को मलीन-कलुषित करता है। उससे उनका फलायोग होता है । अमृत और विष पथ्य और अपथ्य में कुछ भी ज्ञान नहीं होता तथापि आत्मा का संयोग पाकर वे अपनी प्रकृत्यानुसार प्रभाव डालते हैं। जिस प्रकार गणित करने वाली मशीन जड़ होने पर भी अंक गणना में भूल नहीं करती वैसे ही कर्म जड़ होने पर भी फल देने में भूल नहीं करते । अतः ईश्वर को नियंता मानने की आवश्यकता नहीं । कर्म के विपरीत वह कुछ भी देने में समर्थ नहीं होगा।
___एक तरफ ईश्वर को सर्वशक्तिमान मानना दूसरी तरफ अंश मात्र भी परिवर्तन का अधिकार नहीं देना ईश्वर का उपहास है। इससे तो अच्छा है कि कर्म को ही फल प्रदाता मान लिया जाये। कर्म बन्ध और उसके भेद :
माकन्दी ने अपनी जिज्ञासा के शमनार्थ प्रश्न किया कि भगवन् ! भावबन्ध के भेद कितने हैं ?
भगवान्-माकन्दी पुत्र, भाव बन्ध दो प्रकार का हैमूल प्रकृति बन्ध और उत्तर प्रकृति बन्ध ।
बन्ध आत्मा और कर्म के सम्बन्ध की पहली अवस्था है । वह चतुरूप है। यथा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश । बन्ध का अर्थ है आत्मा और कर्म का संयोग । और कम का निर्मापणा व्यवस्थाकरण-बन्धनम निर्मापणम् । (स्था० ८/५६६) ग्रहण के समय कर्म पुद्गल अविभक्त होते हैं । ग्रहण के पश्चात् वे आत्म प्रदेशों के साथ एकीभूत हो जाते हैं। इसके पश्चात् कर्म परमाणु कार्यभेद के अनुसार अाठ वर्गों में बंट जाते हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, प्रायुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय।
कर्म दो प्रकार के हैं घाती कर्म और अघाती कर्म । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार घनघाती, अात्म शक्ति के घातक, आवरक, विकारक और प्रतिरोधक हैं। इनके दूर हो जाने पर ही प्रात्म गुण प्रकट होकर निज स्वरूप में आत्मा आ जाती है। शेष चार अघाती कर्म हैं। ये मुख्यतः आत्म गुणों का घात नहीं करते हैं। ये शुभ-अशुभ पौद्गलिक दशा के निमित्त हैं । ये अघाती कर्म बाह्यार्थापेक्षी हैं। भौतिक तत्त्वों की इनसे प्राप्ति होती हैं। जीवन का अर्थ है-आत्मा और शरीर का सहभाव । शुभ-अशुभ शरीर निर्माणकारी कर्म वर्गणाएं नाम कर्म । शुभ-अशुभ जीवन को बनाये रखने वाली कर्म वर्गणाएं आयुष्य कर्म । व्यक्ति को सम्माननीय-असम्माननीय बनाने वाली कर्म वर्गणाएं गोत्र कर्म और सुख-दुःखानुभूतिकारक कर्म वर्गणाएं वेदनीय कर्म कहलाती हैं ।
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