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[ कर्म सिद्धान्त
तीसरी अवस्था काल मर्यादा की है । प्रत्येक कर्म प्रत्येक आत्मा के साथ निश्चित समय पर्यन्त रह सकता है । स्थिति परिपक्व होने पर वह आत्मा से अलग हो जाता है | चौथी अवस्था फल दान शक्ति की है । तदनुसार पुद्गलों में इसकी मन्दता व तीव्रता का अनुभव होता है ।
श्रात्मा का स्वातन्त्र्य व पारतन्त्र्य :
सामान्यतः यह कहा जाता है कि आत्मा कर्तृत्वापेक्षा से स्वतन्त्र है पर भोगने के समय परतन्त्र । उदाहरणार्थ विष को खा लेना अपने हाथ की बात है पर मृत्यु से विमुख होना स्वयं के हाथ में नहीं है । चूंकि विष को भी विष से निर्विष किया जा सकता है । मृत्यु टल सकती है । आत्मा का भी कर्तेपन में ब भोगतेपन में स्वातन्त्र्य और पारतन्त्र्य दोनों फलित होते हैं ।
सहजतया आत्मा कर्म करने में स्वतन्त्र है । इच्छानुसार कर्म कर सकती है । कर्म विजेता बन पूर्ण उज्ज्वल बन सकती है । पर कभी-कभी पूर्वजनित कर्म और बाह्य निमित्त को पाकर ऐसी परतन्त्र बन जाती है कि वह इच्छानुसार कुछ भी नहीं कर सकती । जैसे कोई आत्मा सन्मार्ग पर चलना चाहती हुई भी चल नहीं सकती । यह है आत्मा का स्वातन्त्र्य और पारतन्त्र्य ।
कर्म करने के पश्चात् भी आत्मा कर्माधीन हो जाती है, यह भी नहीं कहा सकता । उसमें भी आत्मा का स्वातन्त्र्य सुरक्षित रहता है, उसमें भी अशुभ को शुभ में परिवर्तित करने की क्षमता निहित है ।
कर्म का नाना रूपों में दिग्दर्शन :
कर्म बद्ध आत्मा के द्वारा प्राठ प्रकार की पुद्गल वर्गणाएँ गृहीत होती हैं । औदारिक वर्गणा, वैक्रिय वर्गरणा, आहारक वर्गणा, तेजस् वर्गणा, कार्मण वर्गणा, भाषा वर्गणा, श्वासोच्छ्वास वर्गरणा और मनोवर्गणा । इनमें कार्मण वर्गणा के जो पुद्गल होते हैं वे कर्म बनने के योग्य होते हैं । उनके तीन लक्षण हैं
१. अनन्त प्रदेशी स्कन्धत्व |
२. चतुः स्पर्शित्व ।
३. सत् असत् परिणाम ग्रहण योग्यत्व |
संख्यात्-असंख्यात प्रदेशी स्कन्ध कर्म रूप मैं परिणत नहीं हो सकते । दो, तीन, चार, पाँच, छह, सात और आठ स्पर्श वाले पुद्गल स्कन्ध कर्मरूप में परिणत नहीं हो सकते । आत्मा की शुभ अशुभ प्रवृत्ति (आस्रव) के बिना सहज
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