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घटवण्डागम और कसायपाहुड
डॉ. चेतनप्रकाश पाटनी
दिगम्बर परम्परः में षट्खण्डागम और कषायप्राकृत की गगना आगम ग्रन्थों में की जाती है। इनमें कर्म-सिद्धान्त विषयक गम्भीर. विशद एवं विस्तृत चर्चा है। षर्खण्डागम में छह खण्ड है, जिनमें से जीन्स्थान आदि पाँच खण्डों की रचना आचार्य पुष्पदन्त ने की तथा छडे खण्ड महाबंध को रचना भूतबली ने की। काणयप्राभृन के रचयिता आचार्य गुगधर थे। कषायप्राभृत में मात्र मोहकर्म की चर्चा है। जैनदर्शन के विद्वान् एवं ज्यनारायण व्यास विश्वविद्यालय में हिन्दी के सह आचार्य डा. पाटनी जा ने षटखण्डागा और कषायप्राभूत (कसायपाहुड) का इनकी टीकाओं सहित संक्षेप में परिचय कराया है। व्यापक अध्ययन के लिए मूलग्रन्थ एवं टीकाएँ अध्येतव्य हैं। -सम्पादक
परम्परा
___ अविच्छिन्न श्रुतपरम्परा के आकांक्षी दीर्घदर्शी धरसेनाचार्य के शिष्य आचार्य पुष्पदन्त और भूतबली द्वारा विरचित षट्खण्डागम दिगम्बर जैन साहित्य की अनुपम निधि है। अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर द्वारा अपनी दिव्यध्वनि के माध्यम से प्रतिपादित वस्तुस्वरूप को प्रधान गणधर गौतम ने द्वादशांग वाणी के रूप में ग्रथित कर परवर्ती आचार्यों को श्रुत परम्परा से सुलभ कराया। श्रुत की यह मौखिक परम्परा क्रमश: क्षीण होती चली गई। भगवान के निर्वाण के बाद ६२ वर्ष में तीन अनुबद्ध केवली भगवान हुए, पश्चात् सौ वर्ष के काल में पाँच श्रुत केवली द्वादशांग ज्ञान के धारी हुए। उसके बाद १८३ वर्ष में ११ अंग और १० पूर्व के ज्ञाता आचार्यों की परम्परा चली। अनन्तर २२० वर्षों में केवल पाँच हो आचार्य ऐसे हुए जिन्हें ११ अंगों का ज्ञान प्राप्त था। इसके बाद अंगों का ज्ञान लुप्त होने लगा और केवल चार आचार्य ऐसे हुए जिन्हें एक अंग का और शेष अंगों व पूर्वो के एक देश का ज्ञान प्राप्त था। तब तक श्रुत को लिपिबद्ध करने के प्रयासों का शुभारम्भ नहीं हुआ था। अवतरण
भगवान की दिव्यध्वनि से निःसृत यह ज्ञान आचार्य परम्परा से क्रमश: हीन होता हुआ आचार्य धरसेन तक आया। वे अत्यन्त कुशल निमित्तज्ञानी थे। अपने निमिसज्ञान से वे यह जान रहे थे कि महाकर्मप्रकृति प्राभृत के ज्ञाता वे अन्तिम आचार्य हैं। उसके बाद मौखिक / श्रुत परम्परा के बल पर आगम ज्ञान की इस धारा को बढाना सम्भव नहीं रहेगा। अत: उन्हें इसकी सुरक्षा की चिन्ता हुई। अपनी चिन्ता से मुक्त होने के लिए उन्होंने 'गिरनार' सिद्ध क्षेत्र को अपनी साधना स्थली बनाया। अपने संघस्थ शिष्यों में उन्हें कोई ऐसा समर्थ साधक नहीं दिखा जो उनके आगम ज्ञान को ग्रहण कर लिपिबद्ध कर सके, अत: महिमानगरी में सम्पन्न होने वाले 'मुनि सम्मेलन' को उन्होंने संदेश भेजकर अपनी चिन्ता से अवगत कराया और दो योग्य
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