SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 5
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यवहार सूत्र 421 कर ले तो उसे नई दीक्षा ही दी जानी चाहिए। इसके अतिरिक्त प्रायश्चित्त नहीं आता है। सूत्र ३३ में बताया गया है कि भिक्षु ७ व्यक्तियों के समक्ष अपने अकृत्य स्थान की आलोचना कर सकता है- १. आचार्य के पास २. उनके अभाव में स्वगन्छ के बहुश्रुत के पास ३. उनके अभाव में अन्य गच्छ के बहुश्रुत के पास ४. उनके अभाव में सारूपिक साधु के पास ५. . उनके अभाव में पश्चात्कृत श्रमणोपासक (जो महाव्रत छोड़कर श्रावक बना हो) के पास ६. उनके अभाव में सम्यग्दृष्टि के पास और ७. उनके अभाव में ग्राम के बाहर अरिहंत - सिद्ध प्रभु की साक्षी में । द्वितीय उद्देशक सूत्र १ से ४ में विचरने वाले साधर्मिकों के परिहार तप का विधान किया गया है। दो साधर्मिक साधु साथ विचरण कर रहे हों, उनमें से यदि एक अकृत्य स्थान का सेवन करके आलोचना करे तो उसे प्रायश्चित्त दिया जावे और दूसरा उसकी वैयावृत्य करे। यदि दोनों निर्ग्रन्थ दोष के भागी हो तो पहले एक कल्पाक स्थापित हो और दूसरा तप करे, कल्पाक ही वैयावृत्य भी करे। एक का परिहार तप पूर्ण होने पर कल्याक पारिहारिक साधु बने और पारिहारिक कल्पाक बने । अनेक साधर्मिक साधु साथ विचर रहे हों और कोई श्रमण दोष का सेवन कर आलोचना करें तो प्रमुख स्थविर प्रायश्चित धारण करावे एवं एक भिक्षु को उसकी सेवा के लिए नियुक्त करे। सारे साधर्मिक अकृत्य स्थान का सेवन करे तो एक कल्पाक बने, शेष पारिहारिक । बाद में कल्पाक प्रायश्चित्त वहन करे । सूत्र ५ में बताया गया है कि पारिहारिक भिक्षु रोगी होने पर किसी अकृत्य स्थान की प्रतिसेवना कर आलोचना करे तो उसके लिए तीन विकल्प हैं- १. यदि वह तप करने में समर्थ हो तो तप रूप प्रायश्चित्त देवे एवं अनुपारिहारिक को सेवा में नियुक्त करे । २. तप करने में असमर्थ होने पर वैयावृत्य के लिए अनुपारिहारिक भिक्षु नियुक्त करे ३. यदि पारिहारिक समर्थ होते हुए भी निर्बलता का दिखावा करें अनुपारिहारिक भिक्षु से सेवा करावे तो उसका प्रायश्चित्त, पूर्व प्रायश्चित्त में आरोपित करे। सूत्र ६ से १७ में १२ प्रकार की विभिन्न अवस्थाओं वाले भिक्षुओं का वर्णन है १ . परिहार तप वहन करने वाला २. नवम प्रायश्चित्त तप का सेवन करने वाला ३. दसवें प्रायश्चित्त तप का सेवन कर्ता ४ विक्षिप्त चित्त से पीड़ित ५ दीप्तचित्त (हर्षातिरेक) से पीड़ित ६. यक्षावेश से पीड़ित ७. मोहोदय से उन्मत्त ८. उपसर्ग से पीड़ित ९. कषाय से पीड़ित १०. अधिक प्रायश्चित देने से भयभीत ११. भक्त पान प्रत्याख्यान से पीड़ित तथा १२. धन के प्रलोभन से पीड़ित । इन रुग्ण भिक्षुओं को गण से निकालने का निषेध किया गया है। जब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229839
Book TitleVyavahara Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Bohra
PublisherZ_Jinavani_003218.pdf
Publication Year2002
Total Pages15
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size227 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy