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________________ 14201 .. जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङक आचार्यादि) वाचना करा सकते हैं एवं एक भिक्षु को कल्पाक ही पारिहारिक की वैयावृत्य के लिए नियुक्त करते हैं। उस भिक्षु को अनुपारिहारिक कहः जाता है। ये १८ सूत्र निशीथ सूत्र के उद्देशक २० के समान हैं। सूत्र १९ में बताया गया है कि अनेक पारिहारिक एवं अपारिहारिक भिक्षु स्थविर की आज्ञा के बिना एक साथ रहना, बैठना आदि प्रवृत्ति नहीं कर सकते हैं। यदि वे ऐसा करते हैं तो जिनने दिन करें उतने दिनों का दीक्षा छेद या परिहार त! का प्रायश्चित्त आता है। यहां यह स्पष्ट होता है कि समूह में रहकर भी पारिहारिक भिक्षु अकेला कार्य करता है। समूह में रहने का कारण यह हो सकता है कि इसे देखकर अन्य भिक्षुओं को भय उत्पन्न हो जिससे वे दोष का सेवन न करें तथा पारिहारिक भी कपट न करते हुए शुद्धिपूर्वक प्रायश्चित्त का पालन करे। सूत्र २०,२१ व २२ में प्रायश्चित्त काल में वैयावृत्य हेतु विहार का विधान किया गया है। पारिहारिक भिक्षु स्थविर की आज्ञा से किसी रोगी स्थविर की सेवा के लिए अन्यत्र जा सकता है। विहार में तप करने की शक्ति न हो तो स्थविर की आज्ञा से तप छोड़कर भी जा सकता है। इन सूत्रों में वैयावृत्य की महत्ता प्रतिपादित की गई है। उत्तराध्ययन आदि अन्य जैनागमों में भी वैयावृत्य का अवसर होने पर स्वाध्याय आदि प्रमुख कार्यों को छोड़ने का निर्देश है - वेयावच्चे निउत्तेणं, कायव्वं अगिलायओ।- उत्तराध्ययन 26.10 मार्ग में भी पारिहारिक भिक्षु को अकारण ज्यादा नहीं ठहरना चाहिए। अकारण जितने दिन रुके उतने दिन का दीक्षा छेद या परिहार तप का प्रायश्चित्त आता है। सूत्र २३ से २५ में एकाकी विहार प्रतिमा प्रायश्चिन का विधान किया गया है। यदि कोई एकलविहारी भिक्षु आचार्य, उपाध्याय, गणावच्छेदक पुन: गण में आने की इच्छा करे तो उसे यथायोग्य प्रायश्चित्त देकर गण में रख लेना चाहिए। सूत्र २७ से ३० में पासत्थादि पांच प्रकार के भिक्षुओं के प्रायश्चिन का विधान है। यदि भिक्षु गण से निकलकर पावस्थ, यथान्छन्द, शील, अवसन्न या संसत्त विहार प्रतिमा को अंगीकार कर विचरे और पुन: उसी गण में आना चाहे तो यदि उसका चारित्र कुछ शेष हो और संयम पालन के भाव हों तो तप या छेद का प्रायश्चित्त देकर पुन: गण में सम्मिलित कर लेना चाहिए। सुत्र ३१ में बताया है कि यदि कोई भिक्षु गाण से निकल कर परपाषण्ड प्रतिमा (अन्य तीर्थयों की वेशभूषा) को धारण कर विचरे और पुन: उसी गण में आना चाहे तो उसे आलोचना के अतिरिक्त और कोई प्रायश्चित्त नहीं दिया जाए। सूत्र ३२ में कोई भिक्षु यदि गण से निकल कर गृहस्थ लिंग धारणः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229839
Book TitleVyavahara Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNina Bohra
PublisherZ_Jinavani_003218.pdf
Publication Year2002
Total Pages15
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size227 KB
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