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________________ 394 जिनवाणी- जैनागमं साहित्य विशेषाक या परिवर्तन के प्रामाणिकता से पालन करना श्रमण के लिए अनिवार्य है उन्हें उत्सर्ग मार्ग कहा जाता है। निर्दोष चारित्र की आराधना इस मार्ग की विशेषता है। द्वितीय, अपवाद मार्ग से यहां अभिप्राय है विशेष विधि | यह दो प्रकार की होती है— निर्दोष विशेष विधि और सदोष विशेष विधि | आपवादिक विधि सकारण होती है। जिस क्रिया या प्रवृत्ति से आज्ञा का अतिक्रमण न होता हो, वह निर्दोष है। परन्तु प्रबलता के कारण मन न होते हुए भी विवश होकर दोष का सेवन करना पड़े या किया जाये, वह सदोष अपवाद है। प्रायश्चित्त से उसकी शुद्धि हो जाती है। तृतीय, दोष सेवन का अर्थ है- उत्सर्ग और अपवाद मार्ग का उल्लंघन। चतुर्थ प्रायश्चित्त का अर्थ है - दोष सेवन के शुद्धिकरण के लिए की जाने वाली विधि । दशाश्रुतस्कन्ध परिचय कालिक ग्रन्थ नन्दीसूत्र में पहले जैन आगम साहित्य को अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य में वर्गीकृत किया गया है । पुनः अंगबाह्य आगम को आवश्यक, आवश्यकव्यतिरिक्त, कालिक और उत्कालिक रूप में वर्गीकृत किया गया हैं । ३१ कालिक ग्रंथों में उत्तराध्ययन के पश्चात् दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प, व्यवहार, निशीथ और महानीशीथ इन छेदसूत्रों का उल्लेख है । कालिक ग्रंथों का स्वाध्याय विकाल को छोड़कर किया जाता था । रचना प्रकृति जैन आगमों की रचनायें दो प्रकार से हुई हैं" -१. कृत २. निर्यूहित । जिन आगमों का निर्माण स्वतन्त्र रूप से हुआ है वे आगम कृत कहलाते है । जैसे गणधरों द्वारा रचित द्वादशांगी और भिन्न-भिन्न स्थविरों द्वारा निर्मित उपांग साहित्य कृत आगम हैं। निर्यूहित आगम वे हैं जिनके अर्थ के प्ररूपक तीर्थकर हैं, सूत्र के रचयिता गणधर है और संक्षेप में उपलब्ध वर्तमान रूप के रचयिता भी ज्ञात हैं जैसे दशवैकालिक के शय्यंभव तथा कल्प, व्यवहार और दशाश्रुतस्कन्ध के रचयिता भद्रबाहु हैं । दशाश्रुतस्कन्ध निर्युक्ति" से भी यह तथ्य स्पष्ट होता है। पंचकल्पचूर्णि से भी इस तथ्य की पुष्टि होती हैतेण भगवता आयारकप्प-दसाकप्प - ववहारा य नवमपुव्वनीसंदभूता निज्जूढा | रचनाकाल सामान्य रूप से आगमों के रचनाकाल की अवधि ई.पू. पाँचवीं से ईसा की पाँचवीं शताब्दी के मध्य अर्थात् लगभग एक हजार वर्ष मानी जाती है । इस अवधि में ही छेदसूत्र भी लिखे गये हैं। परम्परागत रूप से छ. छेटसूत्रों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229837
Book TitleDashashrutskandh Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherZ_Jinavani_003218.pdf
Publication Year2002
Total Pages17
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size261 KB
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