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________________ दशाश्रुतस्कन्धसूत्र २. निर्ग्रन्थी द्वारा स्त्री भोगों का निदान | ३. निर्ग्रन्थ द्वारा स्त्री भोगों का निदान ! ४. निर्ग्रन्थी द्वारा पुरुष भोगों का निदान । ५-७. संकल्पानुसार दैविक सुख का निदान | ८. श्रावक अवस्था प्राप्ति का निदान । ९. श्रमण जीवन प्राप्ति का निदान । इन निदानों का दुष्फल जानकर निदान रहित संयम-तप की आराधना करनी चाहिए। विषय वस्तु का महत्त्व 403 दशाश्रुतस्कन्ध की विषयवस्तु पर विचार करते हुए आचार्य देवेन्द्र मुनि” ने कहा है कि असमाधि स्थान, चित्तसमाधि स्थान, मोहनीय स्थान और आयतिस्थान में जिन तत्त्वों का संकलन किया गया है, दे वस्तुतः योगविद्या से संबद्ध हैं। योग की दृष्टि से वित्त को एकाग्र तथा समाहित करने के लिए ये अध्ययन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । उपासक प्रतिमा और भिक्षु प्रतिमा, श्रावक व श्रमण की कठोरतम साधना के उच्चतम नियमों का परिज्ञान कराते हैं। शबलदोष और आशातना इन दो दशाओं में साधु जीवन के दैनिक नियमों का विवेचन किया गया है और कहा गया है कि इन नियमों का परिपालन होना ही चाहिए। चतुर्थ दशा गणि सम्पदा में आचार्य पद पर विराजित व्यक्ति के व्यक्तित्व के प्रभाव तथा शारीरिक प्रभाव का अत्यन्त उपयोगी वर्णन किया गया है। I २३ आचार्य” ने दशाश्रुतस्कन्ध के प्रतिपाद्य पर ज्ञेयाचार, उपादेयाचार और हेयाचार की दृष्टि से भी विचार किया है- असमाधिस्थान, शबल दोष, आशातना, मोहनीय स्थान और आयतिस्थान में साधक के हेयाचार का प्रतिपादन है। गणि सम्पदा में अगीतार्थ अनगार के ज्ञेयाचार का और गीतार्थ अनगार के लिए उपादेयाचार का कथन है । चित्तसमाधि स्थान में उपादेयाचार का कथन है। उपासक प्रतिमा में अनगार के लिए ज्ञेयाचार और सागार श्रमणोपासक के लिए उपादेयाचार का कथन है। भिक्षु प्रतिमा में अनगार के लिए उपादेयाचार और सागार के लिए ज्ञेयाचार का कथन है। अष्टम दशा पर्युषणाकल्प में अनगार के लिए ज्ञेयाचार, कुछ हेयाचार अनागार और सागार दोनों के लिए उपयोगी है। दशाओं का पौर्वापर्य एवं परस्पर सामंजस्य दशाश्रुतस्कन्ध में प्रतिपादित अध्ययनों के पौर्वापर्य का औचित्य सिद्ध करने से पूर्व इस तथ्य पर विचार करना आवश्यक है कि आचार्य ने समाधिस्थान का वर्णन न कर सर्वप्रथम असमाधि स्थानों का ही वर्णन क्यों किया? इसके उत्तर में आचार्य आत्मारामजी के शब्दों मे कहा जा सकता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229837
Book TitleDashashrutskandh Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherZ_Jinavani_003218.pdf
Publication Year2002
Total Pages17
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size261 KB
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