________________ नन्दीसूत्र और उसकी महत्ता 381 समयसुन्दर उपाध्याय ने अपने समाचारी शतक में भी लिखा है "तर्हि कथमेतावन्तो विसंवादा लिखितास्तेन? उच्यते-एक तु कारणमिदं यथा-यथा यस्मिन यस्मिन आगमे मतावशिष्टसाधभिर्यद यदक्तम तथा तथा तस्मिन्-तस्मिन आगमे श्रीदेवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणेनाऽपि पुस्तकारूढीकृतम्, न हि पापभीरवो महान्त 'इदं सत्यम्' 'इदं तु असत्यमिति' एकान्तेन प्ररूपयन्तीति, द्वितीय तु कारणमिदं यथा वलभ्यां यस्मिन्काले देवद्धिंगणिक्षमाश्रमणतो वाचना प्रवृता तथा तस्मिन्नेव काले मथुरानगर्यामापे स्कन्दिलाचार्यतोऽपि द्वितीया वाचना प्रवृत्ता, तदा तत्कालीनमृतावशिष्टछास्थसाघुमुखविनिर्गताऽऽगमालापकेषु सकलनाया विस्मृतत्वादिदोष एव वाचनाविसंवादकारको जातः'- पृ.८० दुर्भिक्षा के बाद बचे हुए साधुओं ने जिस जिस आगग में जैसा कहा वैला देवर्द्धिगणी ने पुस्तकारूढ कर लिया, क्योंकि पापभीर आचार्य यह सत्य, यह असत्य ऐसा एकान्त से प्ररूपण नहीं करते। दूसरा वलभी और मथुरा में एक समय टो वाचनाएँ हुई थी, जिसमें मृतावशिष्ट साधुओं के मुख रो निकले हुए आलापकों की संकलना में विस्मृतत्व आदि दोष ही वाचना के विसंवाद का कारण हुआ। उपर्युक्त उल्लेख से वाचनाभेद व मतभेद का कारण स्पष्ट हो जाता है, इसलिये शंका करने की आवश्यकता नहीं रहती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org