________________ | 360: ... जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाडक 'अहंभाव'। अपने नाम, यश, कीर्ति के लिए प्राणी अपना भान खो देता है और 'अहं' में भर कर स्वयं समस्या बन जाता है। अगर व्यक्ति अपने आपको इस समाज का ,इस राष्ट्र का और समस्त जनता का एक पुर्जा मानकर, एक अंग समझकर चले तो कोई समस्या ही नहीं रहेगी। ऐसे व्यक्ति का हर कदम, हर कार्य, प्रत्येक वचन नपा-तुला. आत्म-चिन्तन से जुड़ा तथा परहित चिन्तन से युक्त होगा। मुझे कितना चलना है, कैसी हरकत करनी है, कितनी गति और प्रगति करनी हैइन सब बातों का सोच अर्थात् अपना स्वयं का आकलन समाज के सामने रखकर करना ही समस्याओं का सही निदान है। जब प्राणी का चिन्तन इस दिशा में बढ़ेगा और जीवन-शैली इसी विचार में चलेगी तो समाज में प्रदर्शन की भावना समाप्त हो जाएगी। न बाह्य आडम्बर रहेंगे और न परेशानियाँ पैदा होंगी। आपके भीतर में जो भी बुराइयाँ हैं, अहंकार का भाव है, मायालोभ, क्रोध-मान है उसे आप खुद ही दूर करें, इससे बढ़कर और कोई अच्छा रास्ता नहीं है। जो विनय करेगा, अनुशासन में रहेगा वह सुख, शांति और आनन्द का भागी होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org