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मनुष्य 4. देव । नारक जीव का वर्णन 36.156 से 36.169 तक, तिर्यच का निरूपण 36.170 से 36.194 तक, मनुष्य का वर्णन 36.195 से 36.203 तक और देव का वर्णन 36.204 से 36.247 तक किया गया है।
इह जीवमजीवे य सोच्चा सद्दहिऊण य।
सवनयाण अणुमए रमेज्जा संजमे मुणी।।36.250।। इस प्रकार जीव और अजीव के व्याख्यान को सुनकर और उस पर श्रद्धा करके सभी नयों से अनुमत संयम में मुनि रमण करे।
तओ बहुणि वासाणि सामण्णमणुपालिया।
इमेण कमजोगेण अप्पाणं संलिहे मुणी । 136.251 ।। अनेक वर्षों तक श्रामण्य का पालन करके मुनि इस क्रम से आत्मा की संलेखना करे। संलेखना जघन्य ६ महीने की, मध्यम एक वर्ष की और उत्कृष्ट बारह वर्ष की होती है।
पढमे वासचउक्कम्मि विमईनिज्जहणं करे।
बिइए वासचउक्कम्मि विचित्रं तु तवं चरे | 136.2521। साधक को प्रथम के चार वर्षों में विगय का त्याग करना चाहिए और दूसरे चार वर्षों में विविध प्रकार का तप करना चाहिए।
आयंबिल के पारणे में दो वर्ष तक एकान्तर तप करना चाहिए। इसके पश्चात् छ: मास तक अति विकट तप नहीं करना चाहिए। भिन्न-भिन्न तप की अवधि और आयंबिल से पारणा करने की विधि बताई गई है।
कन्दप्पमाभिओगं किबिसियं मोहमासुरत्तं च।। ___ एयाओ दुग्गईओ मरणम्मि विराहिया होन्ति ।। 36.257 ।।
कन्दर्प, अभियोग, किल्विष, मोह और आसुरी भावना दुर्गति की हेतु है और मृत्यु समय में इन भावनाओं से जीव विराधक हो जाते हैं।
मिच्छादसंणरत्ता सनियाणा हु हिंसगा।
इय जे मरन्ति जीवा तेसिं पुण दुल्लहा बोही।।36.258।। जो जीव मिथ्यादर्शन में रत, हिंसक तथा निदानयुक्त करणी करने वाले हैं वे इन भावनाओं में मर कर दुर्लभ बोधि होते हैं।
सम्मदंसणरत्ता अनियाणा सुक्कलेसमोगाढा।
इय जे मरन्ति जीवा सुलहा तेसिं भवे बोही।।36.259 जो जीव सम्यग् दर्शन में अनुरक्त, अतिशुक्ल लेश्या वाले और निदान रहित क्रिया करते हैं, वे मरकर परलोक में सुलभ बोधि होते हैं।
समाधिमरण में बाधक और साधक तत्त्व ३६.२५६ से ३६.२६२ तक वर्णित हैं। मृत्यु के समय साधक के लिए समाधिमरण में छह बातें आवश्यक हैं- १. सम्यग्दर्शन में अनुराग २. अनिदानता ३. शुक्ल लेश्या में लीनता ४. जिनवचन में अनुरक्ति ५. जिनवचनों की भावपूर्वक जीवन में क्रियान्विति ६. आलोचना द्वारा आत्म-शुद्धि।
कान्दी आदि अप्रशस्त भावनाओं का वर्णन ३६.२६३ से ३६ २६७ में किया गया है। कन्द के पांच लक्षण बताए गाा हैं... १ . अट्टहास
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