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________________ 302 जिनकी उपांग संज्ञा है । वे निम्नांकित हैं: जीवाजीवाभिगम १. उववाइय ( औपपातिक) २ रायपसेणीय (राजप्रश्नीय) ३. ४. पन्नवणा (प्रज्ञापना) ५. जम्बूद्वीवपन्नत्ति (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) ६. चंदपण्णत्त (चन्द्रप्रज्ञप्ति) ७. सूरियपण्णत्ति (सूर्यप्रज्ञप्ति) ८ निरयावलिया (निरयावलिका) ९. कप्पवडंसिया (कल्पावतंसिका) १०. पुष्क्रिया (पुष्पिका) ११. पुप्फचूला (पुष्पचूला) तथा . वहिदसा (वृष्णिदशा) । १२. प्रत्येक अंग का एक उपांग होता है। अंग और उपांग में आनुरूप्य हो, यह वांछनीय है। इसके अनुसार अंग-आगमों तथा उपांग- आगमों में विषय सादृश्य होना चाहिए। उपांग एक प्रकार से अंगों के पूरक होने चाहिए। किन्तु अंगों एवं उपांगों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर यह प्रतीत होता है कि ऐसी स्थिति नहीं है। उनमें विषय वस्तु के विवेचन, विश्लेषण आदि की परस्पर संगति नहीं है । उदाहरणार्थ आचारांग प्रथम अंग है । औपपातिक प्रथम उपांग है। अंगोपांगात्मक दृष्टि से यह अपेक्षित है कि विषयाकलन, तत्त्व - प्रतिपादन आदि के रूप में उनमें साम्य हो, औपपातिक आचारांग का पूरक हो, किन्तु ऐसा नहीं है। यही स्थिति लगभग प्रत्येक अंग एवं उपांग के बीच है । यों उपांग परिकल्पना में तत्त्वतः वैसा कोई आधार प्राप्त नहीं होता, जिससे इसका सार्थक्य फलित हो। वेद : अंग - उपांग जिनवाणी- जैनागम्-साहित्य विशेषाक तुलनात्मक समीक्षा की दृष्टि से विचार किया जाए तो वैदिक परंपरा में भी अंग, उपांग आदि के उल्लेख प्राप्त होते हैं! वेदों के रहस्य, आशय, तद्गत तत्त्व-दर्शन आदि को सम्यक् स्वायत्त करने, अभिज्ञात करने की दृष्टि से वहाँ अंगों एवं उपांगों का उपपादन है। वेद-पुरुष की कल्पना की गई है। कहा गया है "छन्द वेद के पाद-चरण या पैर है । कल्प- याज्ञिक विधि-विधानों एवं प्रयोगों के प्रतिपादक ग्रन्थ उनके हाथ हैं, ज्योतिष नेत्र हैं, निरुक्त-व्युत्पत्ति शास्त्र, श्रोत्र - कान हैं, शिक्षा-वैदिक मंत्रों के शुद्ध उच्चारण, उदात्त अनुदात्त स्वरित के रूप में स्वर प्रयोग, सन्धि-प्रयोग आदि के निरूपक ग्रन्थ घ्राण-नासिका हैं, व्याकरण इनका मुख है । अंग सहित वेदों का अध्ययन करने से अध्येता ब्रह्मलोक में महिमान्वित होता है।' JRR कहने का अभिप्राय यह है कि इन विषयों के सम्यक अध्ययन के बिना वेदों का अर्थ, रहस्य आशय अधिगत नहीं हो सकता । यहाँ यह ज्ञाप्य है कि जैन आगमों और वेदों के सन्दर्भ में प्रयुक्त 'अंग' पद केवल शाब्दिक कलेवर गत साम्य लिये हुए है, नन्वतः दोनों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229828
Book TitleSurya Pragnapati Chandra Pragnapati Ek Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherZ_Jinavani_003218.pdf
Publication Year2002
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size157 KB
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