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________________ जीवाजीवाभिगम सूत्र 263 नियामक तत्त्व होना चाहिए। पुद्गल व जीव गतिशील है। इन दोनों द्रव्यों की गति लोक में ही होती है, अलोक में नहीं होती। यही कारण है कि संसार से मुक्त जीव लोक के अग्रभाग सिद्धशिला पर जाकर रूक जाते हैं, क्योंकि आगे धर्मास्तिकाय का क्षेत्र नहीं है। जीव की गति में सहायक धर्मास्तिकाय का क्षेत्र लोकप्रमाण माना गया है। अतः कहा जा सकता है कि यदि धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय नहीं होते तो लोक की व्यवस्था छिन्नभिन्न हो जाती, अत: जैन दार्शनिकों ने गति-नियामक तत्व के रूप में धर्मास्तिकाय को, स्थिति नियामक तत्त्व के रूप में अधर्मास्तिकाय की सत्ता को स्वीकार किया है। आकाश द्रव्य शेष सभी द्रव्यों को आश्रय देता है, स्थान प्रदान करता है, अवकाश देता है। आकाश की सत्ता तो सब दर्शनों ने मानी है। यदि आकाश नहीं होता तो जोव व पुद्गल कहाँ रहते ? धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय कहाँ व्याप्त होते ? काल कहाँ वर्तता, पुद्गल का रंगमंच कहाँ बनता? काल औपचारिक द्रव्य है । निश्चय नय की दृष्टि से काल, जीव और अजीव की पर्याय है। व्यवहार नय की दृष्टि से वह द्रव्य है, वर्तना आदि इसके उपकार होने से काल उपकारक है अतः वह द्रव्य है । पदार्थों की स्थिति मर्यादा के लिये जिसका व्यवहार होता है, उसे काल माना गया है। इसके पश्चात् प्रस्तुत ग्रन्थ में रूपी अजीवाभिगम चार प्रकार का बताया गया है-- स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु । इनको संक्षेप में पाँच प्रकार का भी कहा गया है- १. वर्ण परिणत २. गन्ध परिणत ३. रस परिणत ४. स्पर्श परिणत और ५. संस्थान परिणत। यह रूपी अजीव का कथन हुआ। इसके साथ ही अजीवाभिगम का कथन भी पूर्ण हुआ । जीवाभिगम पर विचार करते हुए शिष्य प्रश्न करता है कि जीवाभिगम कितने प्रकार का होता है? प्रश्न के उत्तर में आचार्य फरमाते हैंजीवाभिगम दो प्रकार का होता है १. संसार समापन्नक २. असंसार समापन्नक । संसार समापन्नक अर्थात् संसारवर्ती जीवों का ज्ञान और असंसार समापन्नक अर्थात् संसारमुक्त जीवों का ज्ञान । संसार का अर्थ नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव भवों में भ्रमण करना है। जो जीव उक्त चार प्रकार के भवों में भ्रमण कर रहे हैं वे संसार समापन्नक जीव हैं और जो जीव इस भव-भ्रमण से छूटकर मोक्ष को प्राप्त हो चुके हैं वे असंसार समापन्नक जीव हैं । असंसार समापन्नक जीव दो प्रकार कहे गये हैं . १. अनन्तर सिद्ध २. परम्पर सिद्ध । सिद्धत्व के प्रथम समय में विद्यमान सिद्ध अनन्तर सिद्ध हैं, अर्थात् उनके सिद्धत्व में समय का अन्तर नहीं है। परम्परसिद्ध वे हैं जिन्हें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229824
Book TitleJiva jiva bhigam Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrakash Salecha
PublisherZ_Jinavani_003218.pdf
Publication Year2002
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size108 KB
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