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________________ दृष्टिवाद का स्वरूप ................ 243) इसको पदसंख्या २६ करोड़ बताई गई है। ___ दिगम्बर परम्परा में ग्यारहवें पूर्व का नाम "कल्याणवाद पूर्व' माना गया है। दिगम्बर परम्परा की मान्यतानुसार कल्याणवाद नामक ग्याहवें पूर्व में तीर्थकरों, चक्रवर्तियों, बलदेवों, वासुदेवों और प्रतिवासुदेवों के गर्भावतरणोत्सवों, तीर्थकर नामकर्म का उपार्जन करने वाली सोलह भावनाओं एवं तपस्याओं का तथा चन्द्र व सूर्य के ग्रहण, ग्रह-नक्षत्रों के प्रभाव, शकुन, उनके शुभाशुभ फल आदि का वर्णन किया गया था। श्वेताम्बर परम्परा की तरह दिगम्बर परम्परा में भी इस पूर्व की पद संख्या २६ करोड़ ही मानी गई है। 12. प्राणायु पूर्व- इस पूर्व में श्वेताम्बर पर जरा की मान्यतानुसार आयु और प्राणों का भेद-प्रभेद सहित वर्णन किया गया था। दिगम्बर परम्परा की मान्यतानुसार इसमें काय-चिकित्सा प्रमुख अष्टांग, आयुर्वेद, भूतिकर्म, जांगुलि, प्रक्रम, साधक आदि आयुर्वेद के भेद, इला, पिंगलादि प्राण, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि तत्वों के अनेक भेद, दश प्राण, द्रव्य, द्रव्यों के उपकार तथा अपकार रूपों का वर्णन किया गया था। श्वेताम्बरपरम्परा की मान्यतानुसार प्राणायुपूर्व की पद संख्या १ करोड़ ५६ लाख और दिगम्बर मान्यतानुसार १३ करोड़ थी। 13. क्रियाविशालपूर्व- इसमें संगीतशास्त्र, छन्द, अलंकार, पुरुषों की ७२ कलाएं, स्त्रियों की ६४ कलाएं, चौरासी प्रकार के शिल्प, विज्ञान, गर्भाधानादि कायिक क्रियाओं तथा सम्यग्दर्शन क्रिया, मुनीन्द्रवन्दन, नित्यनियम आदि आध्यात्मिक क्रियाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया था। लौकिक एवं लोकोत्तर सभी क्रियाओं का इसमें वर्णन किया जाने के कारण इस पूर्व का कलेवर अति विशाल था। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराएं इसकी पद संख्या ९ करोड़ मानती हैं। 14. लोकबिन्दुसार- इसमें लौकिक और पारलौकिक सभी प्रकार की विद्याओं का एवं सम्पूर्ण रूप से ज्ञान निष्यादित कराने वाली सर्वाक्षरसन्निपातादि विशिष्ट लब्धियों का वर्णन था। अक्षर पर बिन्दु की तरह सब प्रकार के ज्ञान का सर्वोत्तम सार इस पूर्व में निहित था। इसी कारण इसे लोकबिन्दुसार अथवा त्रिलोकबिन्दुसार की संज्ञा से अभिहित किया गया है। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं की मान्यता के अनुसार इसको पद संख्या साढे बारह करोड़ थी। उपर्युक्त १४ पूर्वो की वस्तु (ग्रन्थविच्छेदविशेष) संख्या क्रमशः १०, १४,८,१८.१२.२,१६,३०,२०.१५,१२,१३,३० और २। उल्लिखित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229821
Book TitleDrushtivad ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherZ_Jinavani_003218.pdf
Publication Year2002
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size78 KB
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