________________
202 .... जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङक गणधर सुधर्मा की रचना है इसलिए अंग-साहित्य का रचनाकाल ई. पू. छठी शताब्दी सिद्ध होता है। अंगबाह्य की रचना एक व्यक्ति की नहीं, अत: उन सभी का एक समय नहीं हो सकता। प्रज्ञापना सूत्र के रचयिता श्यामाचार्य है तो दशवैकालिक सूत्र के रचयिता आचार्य शय्यंभव हैं। नन्दीसूत्र के रचयिता देववचाक हैं तो दशा, कल्प और व्यवहार सूत्र के कर्ता चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु। कुछ विद्वान् आगमों का रचनाकाल वीर निर्वाण के पश्चात् ९८० अथवा ९९३वाँ वर्ष जो देवर्द्धिगणीक्षमाश्रगण का है, मानते हैं उनका यह समय मानना युक्तिसंगत नहीं हैं, क्योंकि देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ने तो आगमों को इस काल में लिपिबद्ध किया था, किन्तु आगम तो प्राचीन ही हैं पहले आगम साहित्य को लिखने का निषेध था, उसे कण्ठस्थ रूप में रखने की परम्परा थी। लगभग एक हजारवर्ष तक वह कण्ठस्थ रहा जिससे श्रुतवचनों में कुछ परिवर्तन होना स्वाभाविक था, परन्तु देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण ने इसे पुस्तकारूढ़ कर इनका ह्रास होने से बचा लिया। इसके बाद कुछ अपवादों को छोड़कर श्रुत साहित्य में परिवर्तन नहीं हुआ। कुछ स्थलों पर थोड़ा बहुत पाठ प्रक्षिप्त व परिवर्तन हुआ हों, किन्तु आगमों की प्रामाणिकता में कोई अन्तर नहीं आया। अन्तकददशांग की भाषा शैली
जिस प्रकार वेद छान्दस भाषा में, बौद्धपिटक पालि भाषा में निबद्ध हैं, उसी प्रकार जैन आगमों की भाषा अर्धमागधी प्राकृत है। समवायांग सूत्र में लिखा है कि भगवान अर्द्धमागधी भाषा में धर्म का व्याख्यान करते हैं भगवान द्वारा भाषित अर्द्धमागधी आर्य, अनार्य, द्विपद, चतुष्पट, मृग, पशु. पक्षी आदि सभी की भाषा में परिणत हो जाती है- उनके लिए हितकर कल्याणकर तथा सुखकर होती है। आचारांगचूर्णि में भी इसी आशय का उल्लेख है। दशवैकालिक वृत्ति में भी इसी प्रकार के आशय एवं भाव व्यक्त किये गये हैं— चारित्र की कामना करने वाले बालक, स्त्री, वृद्ध, मूर्ख अनपढ़ सभी लोगों पर अनुग्रह करने के लिए तत्त्वद्रष्टाओं ने सिद्धान्त की रचना प्राकृत में की। प्रस्तुत आगम की भाषा अर्द्धमागधी है।
'अन्तकृद्दशासूत्र' की रचना कथात्मक शैली में की गई है। इस शैली को 'कथानुयोग' कहा जाता है। इस शैली में 'तेणं कालेणं तेण समएणं' से कथा का प्रारम्भ किया जाता है। आगमों में ज्ञाताधर्मकथा. उपासकदशांग, अनुत्तरौपपातिक, विपाक सूत्र और अन्तकृदशांग सूत्र इसी शैली में निबद्ध किया गया है। इस आगम में प्राय: स्वरान्तरूप ग्रहण करने की शैली को ही अपनाया गया है जैसे-- परिवसति, परिवसइ, रायवण्णतो. रायवण्णओ, एकबीसाते, एगवीसाए आदि। इस आगम में प्राय: संक्षिप्तीकरण की शैली को अपनाते हुए शब्दान्त में बिन्दुयोजना द्वारा, अंक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org