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द्वादशांगी की रचना, उसका हास एवं आगम-लेखन
आगमों की संख्या में नहीं है। संभव है ४४-४५ आगम और ज्योतिषकरंडक आदि वीर नि.सं. ९८० में हुई वल्लभी परिषद् में लिखे गये हो । विद्वान इतिहासज्ञ पुरातन सामग्री के आधार पर इस संबंध में गम्भीरतापूर्वक गवेषणा करें तो सही तथ्य प्रकट हो सकता है।
स्पष्टीकरण
मुलसूत्रों की संख्या और क्रम के संबंध में विभिन्न मान्यताएँ उपलब्ध होती हैं। कुछ विद्वानों ने ३ मूलसूत्र माने हैं तो कहीं ४ की संख्या उपलब्ध होती है। क्रम की दृष्टि से उत्तराध्ययन को पहला स्थान देकर फिर आवश्यक और दशवैकालिक बताया गया है जबकि दूसरी ओर उत्तराध्ययन, दशवैकालिक और आवश्यकसूत्र इस प्रकार मूलसूत्रों की संख्या तीन की गई है। पिण्डनिर्युक्ति तथा कहीं-कहीं पिण्डनिर्युक्ति और ओघनियुक्ति को संयुक्त मान कर चार की संख्या मानी गयी है।
स्थानकवासी परम्परा के अनुसार आवश्यक और पिण्डनिर्युक्ति के स्थान पर नंदी और अनुयोगद्वार को मिला कर चार मूल सूत्र माने गये हैं। जबकि दूसरी परम्परा नन्दी और अनुयोगद्वार को चूलिका सूत्र के रूप में मान्य करती है।
संदर्भ
१ अत्थं नासइ अरहा, सुतं गथति गणहरा निउण । सासणस्स हियट्ठाए, तओ सुतं पवनइ ||
(आ. नियुक्ति, गा. १९२, धवला भा. १, पृ. ६४,७२) दुवालसंगे गणिपिडगे" (समवायागसूत्र १ व १३६, नंदी. ४०) ३. सुत्तं गणहरकथिदं तहेव पत्तेयबुद्धकथिदं नः
२.
सुकेवणि कथिदं, अभिणसपुष्वकथिदं च ।।४।। (मूलाचार, ५-८० )
४. इच्चेइय दुवालसंग गणिपिडंग इच्छित्तिनयट्ठाए साइय सपज्जवसियं, अवुच्छिनिनयट्टाए अणाइयं अपज्जवसियं ।। (नन्दीसूत्र, सूत्र ४२)
"तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्ज सुहागरस अणगारस्स जेड्ले अंतेवासी अज्ज जंबू, नामे अगारे.. ..अज्ज मुहम्मस्स थेरस्म नच्चासन्ने नाइटूरे,. विणणं पज्जुवारमा एवं क्यासी जइणं भंते समाणं भगवया महावीरेणं. ..पंचगरस अंगस्स अयम पण्णने छट्ठ णं भंते! नायधम्मकहाणं के कट्ठे पणते? जंबूत्ति अज्जसुह थेरे अज्ज जब नामं अगर एवं वयासी.
(नायाश्रन्मकहाओ १ - ५) ६. तत्र सर्वज्ञेन परवर्षिणा परमाचिन्त्यकेवलज्ञान-विभूतिविशेषेण अर्थत आगम उद्दिष्टः तस्य लक्षात् शिष्यैः बुद्धयतिशयर्द्धियुक्तैः गणधरै: श्रुतकेवलिभिरनुस्मृतग्रन्थरचनमंअंगपूर्वलक्षणम् । (सर्वार्थसिद्धि १ -२० )
७. बुद्धयतिशयद्रियुक्तै गंणधरैरनुस्मृतग्रन्थरचनम् - आचारादि
द्वादशविधमंगप्रविष्ट
मुच्यते ।
(राजवार्तिक १ - २०१२, पृ. ७२)
८. (क) तस्यप्यर्थत: सर्वज्ञवीतरागकन्नसिद्धेः अर्हदुभाषिता देवैः प्रथितम्
५.
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