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द्वादशांगी की रचना, उसका हास एवं आगम-लेखन
आचार्यप्रवर श्री हस्तीमल जी म.सा.
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आचार्यप्रवर श्री हस्तीमल जी महाराज ने नन्दीसून दशवैकालिकसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र, बृहत्कल्पसूत्र, अंतगडदसासूत्र प्रश्नव्याकरण आदि सूत्रों का विवेचन किया है। वे प्रसिद्ध आगम-विवेचक रहे। जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग - २ में उन्होंने आगम-विषयक प्रचुर जानकारी का समावेश किया है। उसमें से ही कुछ अंश का संकलन कर यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। यह सामग्री जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग-२, के तीन स्थलों से ली गई है : इसने वर्तमान द्वादशांगी की रचना, उसके ह्रास एवं आगम-लेखन पर अच्छा प्रकाश डाला गया है।
-सम्पादक
वर्तमान द्वादशांगी के रचयिता आर्य सुधर्मा
समस्त जैन परम्परा की मान्यतानुसार तीर्थकर भगवान् अपनी देशना में जो अर्थ अभिव्यक्त करते हैं, उसको उनके प्रमुख शिष्य गणधर शासन के हितार्थ अपनी शैली में सूत्रबद्ध करते हैं। वे ही बारह अंग प्रत्येक तीर्थकर के शासनकाल में द्वादशांगी - सूत्र के रूप में प्रचलित एवं मान्य होते हैं। द्वादशांगी का गणिपिटक के नाम से भी उल्लेख किया गया है। सूत्र गणधरकथित या प्रत्येकबुद्ध-कथित होते हैं। वैसे श्रुतकेवलि - कथित और अभिन्न दशपूर्वी कथित भी होते हैं।
यद्यपि विभिन्न तीर्थंकरों के धर्मशासन में तीर्थस्थापना के काल में हो गणधरों द्वारा द्वादशांगी की नये सिरे से रचना की जाती है तथापि उन सब तीर्थंकरों के उपदेशों में जीवादि मूल भावों की समानता एवं एकरूपता रहती है, क्योंकि अर्थ रूप से जैनागमों को अनादि अनंत अर्थात् शाश्वत माना गया है । जैसा कि नन्दीसूत्र के ५८ वें सूत्र में तथा समवायांगसूत्र के १८५ वें सूत्र में कहा गया है
" इच्चेइयं दुवालसंग गणिपिडग न कयाई नासी, न कयाइ न भवइ, न कयाइ न भविरसइ. मुवि च भवइ य भविस्सइ य धुवे, निअए, सासए अक्खए, अव्वए. अवट्ठिए निच्चे ।।"
समय-समय पर अंगशास्त्रों का विच्छेद होने और तीर्थंकरकाल में नवीन रचना के कारण इन्हें सादि और सपर्यवसित भी माना गया है। इस प्रकार द्वादशांगी के शाश्वत और अशाश्वत दोनों ही रूप शास्त्रों में प्रतिपादित किये गये हैं। इस मान्यता के अनुसार प्रवर्तमान अवसर्पिणीकाल के अन्तिम चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर द्वारा चतुर्विध नीर्थ की स्थापना के दिन जो प्रथम उपदेश इन्द्रभूति आदि ग्यारह गणधरों को दिया गया, भगवान की उस वाणी को अपने साथी अन्य सभी गणधरों की तरह आर्य सुधर्मा ने भी द्वादशांगी के रूप में सूत्रबद्ध किया।
ग्यारह गणधरों द्वारा पृथक्-पृथक् स्वतन्त्र रूप से प्रथित बारह ही
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