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जिनवाणी
15, 17 नवम्बर 2006
अनुयोगद्वार सूत्र में गाथा उल्लिखित है- "समणेणं सावरणं य अवस्सं, कायव्वयं हवइ जम्हा, अंतो अहो णिसिरस य तम्हा आवस्सर्य णाम ।" श्रमण / श्रावक के द्वारा उभयकाल अवश्य करणीय होने से इसे आवश्यक कहा जाता है। यदि श्रमण शब्द से ही श्रावक ध्वनित होता है तो आगमकार श्रमण तथा श्रावक इन दोनों शब्दों का भिन्न-भिन्न प्रयोग नहीं करते।
तीर्थंकर देवों ने श्रमण शब्द का प्रयोग साधु के अर्थ में किया है, श्रावक के अर्थ में नहीं। ऐसी स्थिति में श्रमण सूत्र को श्रावकों के प्रतिक्रमण से जोड़ना आगमों के अनुकूल नहीं लगता । २. पूर्वपक्ष- इच्छामि पडिक्कमिउं का पाठ श्रावक को भी पौषध आदि प्रसंगों के होने पर निद्रा से लगे दोषों से निवृत्त होने के लिए यही पाठ बोला जाता है अन्यथा उसके लिए और कोई पाठ नहीं है। उत्तरपक्ष- यह बात ठीक नहीं, क्योंकि पौषधगत दोषों की आलोचना १९वें पौषध व्रत के पाँच अतिचारों से हो जाती है। उसमें भी पाँचवाँ अतिचार " पोसहस्स सम्म अणणुपालणया" अर्थात् पौषध का सम्यक् प्रकार से पालन न किया हो, के अन्तर्गत पौषधगत दोषों का शुद्धीकरण हो जाता है । ३. पूर्वपक्ष- पडिक्कमामि गोयरग्गचरियाए का पाठ - प्रतिमाधारी श्रावक भिक्षोपजीवी ही होते हैं। कई स्थानों पर दयाव्रत की आराधना करने वाले श्रावक गोचरी करते हैं । उसमें लगे हुए दोषों की
निवृत्ति के लिए दूसरा पाठ बोलना ही चाहिए।
उत्तरपक्ष- प्रायः वर्तमान में श्रावक के द्वारा ग्यारहवीं उपासक पडिमा का प्रसंग... नहीं है। आगम में ११ वीं पडिमा में ही श्रावक के लिए गोचरी का विधान है। साफ है यह पाठ साधु प्रतिक्रमण में ही होना चाहिए ।
४. पूर्वपक्ष - पडिक्कमामि चाउक्कालं का प्रतिलेखना संबंधी पाठ- उत्तराध्ययन के २१ वें अध्ययन में "निम्गंथे पावयणे सावए से विकोविए" पालित श्रावक निर्ग्रन्थ प्रवचन में कोविद था तथा उत्तराध्ययन के २२ अध्ययन के अनुसार "सीलवंता बहुस्सुया" राजीमती जी दीक्षा से पूर्व बहुत सूत्र पढ़ी हुई थीं, तो वे दोनों समय उपकरणों की प्रतिलेखना करती ही होंगी। यदि नहीं भी करती तो भी यह तीसरी पाटी आवश्यक सिद्ध होती है।
उत्तरपक्ष- यह ठीक ही है कि श्रावक भी पौषध, दया में उभयकाल प्रतिलेखन करते ही हैं और कई विशेष धर्मश्रद्धा वाले श्रावक चारों कालों में स्वाध्याय करते हुए वर्तमान में भी देखे जाते हैं। पौषध में लगे अतिचारों की शुद्धि तो पारने के पाठ से हो जाती है। सामान्य श्रावक के दोनों वक्त प्रतिलेखन का नियम नहीं है। शायद ही कोई श्रावक ऐसा हो जो उभयकाल स्टील, प्लास्टिक, काँच के बर्तन, सभी कपड़ों की प्रतिलेखना करता हो। साधु के लिए ही दोनों समय प्रतिलेखन आवश्यक है। चारों काल में स्वाध्याय साधु के लिए ही आवश्यक है। कुछ श्रावकों की दिनचर्या में यह नियत होता है, पर यह
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