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________________ 1330 जिनवाणी ||15,17 नवम्बर 2006 का प्रयोग हुआ करता है। इस पाटी में ऐसा प्रयोग न होने से स्पष्ट है कि यह पाठ साधु प्रतिक्रमण के ही योग्य है। प्रश्न तो फिर पौषध में निद्रा संबंधी दोषों की शुद्धि किससे होगी? उत्तर पौषधव्रत के पाँच अतिचारों में पाँचवां अतिचार है “पोसहस्स सम्म अणणुपालणया" "उपवासयुक्त पौषध का सम्यक् प्रकार से पालन नहीं किया हो"1 ग्यारहवें व्रत की पाटी बोलने से पाँच अतिचारों का शुद्धीकरण होता है, जिसमें पाँचवें अतिचार “सम्यक् प्रकार से पौषध का पालन न करने" के अन्तर्गत निद्रा दोष आदि समग्र पौषध सम्बन्धी दोषों का शुद्धीकरण हो जाता है। उससे तो सामान्य शुद्धीकरण होता है, विशेष शुद्धीकरण के लिए अलग से पाटी होनी चाहिए? ___ यदि एक-एक दोष के शुद्धीकरण के लिए अलग-अलग पाटियों की जरूरत रहेगी तो श्रावक प्रतिक्रमण में पहली, दूसरी, चौथी, पाँचवीं समिति, तीन गुप्ति, रात्रि भोजन त्याग आदि सम्बन्धी अनेक पाटियाँ जो साधु प्रतिक्रमण में है, उन्हें भी श्रावक प्रतिक्रमण में डालना पड़ेगा, क्योंकि पौषध में श्रावक भी अपने स्तर से यथायोग्य इन बातों की पालना करता ही है। किन्तु ऐसा होना संभव नहीं है। अतः हर दोष के लिए अलग से पाठ की परिकल्पना करना योग्य नहीं है। प्रश्न आवश्यक सूत्र में ये सभी पाटियाँ है। श्रावक भी आवश्यक करता ही है अतः श्रावक अपने प्रतिक्रमण में क्यों नहीं कहे? आवश्यक सूत्र में वर्तमान काल में उपलब्ध पाठ साधु-जीवन से सम्बन्धित हैं। यदि आवश्यक सूत्र में होने मात्र से इन पाठों को श्रावक प्रतिक्रमण में ग्रहण किया जायेगा तो श्रावक को भी 'करेमि भंते' में तीन करण तीन योग से सावध योगों का त्याग करना होगा, क्योंकि आवश्यक सूत्र में करेमि भंते का जो पाठ है, उसमें 'तिविहं तिविहेणं' का ही उल्लेख है। आवश्यक सूत्र में आए हुए 'इच्छामि ठामि' के पाठ में भी “तिण्हं गुत्तीणं चउण्हं कसायाणं पंचण्हं महब्बयाणं छहं जीवणिकायाणं सत्तण्हं पिंडेसणाणं अट्ठण्डं पवयणमाऊणं णवण्हं बंभचेरगुत्तीणं दसविहे समणधम्मै समणाण जोगाणं' आदि रूप शब्दावली है। इसमें तीन गुप्तियाँ, पाँच महाव्रत, सात पिण्डैषणाएँ, आठ प्रवचन माताएँ, नौ ब्रह्मचर्य की गुप्तियाँ आदि साधु-जीवन सम्बन्धी पाठ हैं। आवश्यक सूत्र में होने पर भी श्रावक इन पाठों का उच्चारण नहीं करके इनके स्थान पर श्रावक योग्य पाठ बोलता है, यथा “तिण्हं गुणवयाणं, चउण्हं सिक्खावयाणं पंचण्हमणुव्वयाणं बारसविहस्स Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229794
Book TitleShravak Pratikraman me Shraman Sutra ka Sannivesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadanlal Katariya
PublisherZ_Jinavani_002748.pdf
Publication Year2006
Total Pages11
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size41 KB
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