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________________ HARD 325 | 15,17 नवम्बर 2006 | जिनवाणी कर्मों का प्रत्याख्यानी हूँ। प्रतिज्ञा सूत्र में श्रावक स्वयं को श्रमण कहे तो वह दोष का भागी है। दशाश्रुतस्कंध की छठी दशा के प्रमाण से यह पहले ही बतलाया जा चुका है कि ग्यारहवीं प्रतिमा की आराधना करने वाला श्रावक भी स्वयं को श्रमणोपासक कहता है, श्रमण नहीं कहता। अतः सावध योगों का दो करण तीन योगों से त्याग करने वाले सामायिक में स्थित श्रावक के द्वारा स्वयं को श्रमण कहना मृषावाद की कोटि में प्रविष्ट होता है। प्रश्न तैंतीस बोलों में से अनेक बोल श्रावक के लिए यथायोग्य रूप से हेय, ज्ञेय अथवा उपादेय हैं। अतः तैंतीस बोल की पाटी का उच्चारण श्रावक प्रतिक्रमण में किया जाए तो क्या बाधा उत्तर यद्यपि तैंतीस बोलों में से कुछ बोलों का सम्बन्ध श्रावक के साथ भी जुड़ा हुआ है फिर भी आगमों से यह स्पष्ट परिलक्षित होता है कि तैंतीस बोलों का सामूहिक कथन साधुओं के लिए ही किया गया है। देखिए स्थानांगसूत्र का नवां स्थान जिसमें भगवान् महावीर अपनी तुलना आगामी उत्सर्पिणी काल में होने वाले प्रथम तीर्थंकर महापद्म से करते हुए फरमाते हैं कि जैसे मैंने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए पहले से लेकर तैंतीसवें बोल तक तैंतीस बोलों का कथन किया है, उसी प्रकार महापद्म तीर्थकर भी श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए एक से लेकर तैंतीस बोलों तक का कथन करेंगे। वह पाठ इस प्रकार है____ “मए समणाणं निग्गंथाणं एगे आरंभगणे पण्णत्ते एवामेव महापउमे वि अहहा समणाणं निग्गंथाणं एग आरंभठाणं पण्णवेहिइ, से जहाणामए अन्जो! मए समणाणं निग्गंथाणं दुविहे बंधणे पण्णत्ते तंजहा-पेज्जबंधणे, दोसबंधणे, एवामेव महापउमे वि अरहा समणा णिग्गंथाणं दुविहं बंधणं पण्णवेहिइ तंजहा-पेज्जबंधणं च दोसबंधणं च। से जहाणामए अज्जो। मए समणाणं निग्गंथाणं तओ दंडा पण्णत्ता तं जहा मणदंडे वयदंडे कायदंडे एवामेव महापउमे वि समणाणं निग्गंथाणं तओ दंडे पण्णवेहिइ तंजहा मणोदंडं वयदंडं कायदंड से जहाणामए एएणं अभिलावेणं चत्तारि कसाया पण्णता तं जहा कोहकसाए माणकसाए मायाकसाए लोहकसाए पंच कामगुणे पण्णते तंजहा सद्दे स्वे गंधे रसे फासे छज्जीवणिकाय पण्णत्ता तंजहा पुदविकाइया जाव तसकाइया एवामेव जाव तसकाइया से जहाणामए एएणं अभिलावेणं सत्त भयहाणा पण्णत्ता तं एवामेव महापउमे वि अरहा समणाणं निग्गंथाणं सत्त भयद्वाणा पण्णवेहिह एवमहमयद्वाणे, णव बंभचेरगुत्तीओ, दसविहे समणधम्मे एगारस उवासगपडिमाओ एवं जाव तेत्तीसमासायणाउत्ति।" अर्थ- आर्यो! जैसे मैंने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए एक आरंभ-स्थान का निरूपण किया है, उसी प्रकार अर्हत् महापद्म भी श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए एक आरम्भ-स्थान का निरूपण करेंगे। ___ आर्यो! जैसे मैंने श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए दो प्रकार के बन्धनों का निरूपण किया है, For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.229794
Book TitleShravak Pratikraman me Shraman Sutra ka Sannivesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadanlal Katariya
PublisherZ_Jinavani_002748.pdf
Publication Year2006
Total Pages11
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size41 KB
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