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________________ |15,17 नवम्बर 2006 | जिनवाणी 1297 सीधा प्रतिक्रमण ही कर लिया जाय तो समय की बचत होती है और प्रतिक्रमण भी हो जाता है। उत्तर सामायिकादि तीन आवश्यक करके ही प्रतिक्रमण किया जाता है, क्योंकि सामायिक या समभाव (अस्थायी ही) आए बिना प्रतिक्रमण रूप प्रायश्चित्त नहीं हो सकता। साथ ही चौबीस तीर्थंकर भगवान् की स्तुति एवं गुरु वन्दना या आशातना की क्षमा लिए बिना भाव-प्रतिक्रमण नहीं किया जा सकता। पापों की आलोचना करने से पूर्व समभाव (रागद्वेषरहितता) एवं विनयशीलता का होना परमावश्यक प्रश्न प्रतिक्रमण सभी पापों के प्रायश्चित्त स्वरूप किया जाता है, फिर केवल मिथ्यात्वादि ५ का ही प्रतिक्रमण कैसे बतलाया गया है? उत्तर इन पाँच प्रकार के प्रतिक्रमणों में सभी पापों का समावेश हो जाता है। अव्रत के प्रतिक्रमण में प्राणातिपात आदि सभी पापों का समावेश हो जाता है। फिर प्रमाद में आत्म-स्वभाव के विपरीत सभी विभावों को समाविष्ट किया गया है। इस प्रकार इन पाँचों में सभी पाप प्रवृत्तियों का प्रतिक्रमण हो जाता है। प्रश्न प्रतिक्रमण किसी भी समय किया जाय तो क्या आपत्ति हो सकती है? उसका निश्चित समय क्यों निर्धारित किया गया है? उत्तर तीर्थंकर भगवान् की आज्ञापालन के साथ दिनभर की आलोचना सायंकाल दिन की समाप्ति पर और रात्रि की सूर्योदय से पूर्व आलोचना करने की दृष्टि से समय निर्धारित किया गया है। वैसे आत्मशुद्धि हेतु भाव प्रतिक्रमण कभी भी किया जा सकता है। बारह तत संबंधी प्रश्नोत्तर प्रश्न श्रावक-श्राविका के १२ व्रत कौन-कौनसे हैं? उत्तर मोटे रूप में प्राणातिपात विरमणादि ५ अणुव्रत, दिशा परिमाणादि ३ गुणव्रत और सामायिक आदि ४ शिक्षाव्रत हैं। प्रश्न बारह व्रतों को अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत क्यों कहते हैं? उत्तर अणुव्रत अर्थात् छोटे व्रत। साधु-साध्वी जी के महाव्रतों की अपेक्षा छोटे होने से। इनमें हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील एवं परिग्रह का पूर्ण रूप से त्याग नहीं होता! गुणव्रत ५ अणुव्रतों को पुष्ट करने वाले हैं। छठे से ८वें व्रत दिशि परिमाण व्रत, उपभोग परिभोग परिमाण व्रत तथा अनर्थदण्ड विरमण व्रत गुणव्रत कहलाते हैं। ९वें से १२वें व्रत तक सामायिक, संवर, पौषध एवं अतिथि-संविभाग व्रत चार शिक्षाव्रत कहलाते हैं। श्रावक-श्राविका इनका अभ्यास करते हैं, धीरे-धीरे पूर्णता की तरफ बढ़ते हैं। प्रश्न बारह व्रतों में कितने विरमण व्रत, परिमाण व्रत आदि हैं? उत्तर पहले से पाँचवें तक तथा आठवाँ व्रत विरमण व्रत माने गए हैं। परिग्रह को परिमाणव्रत भी माना है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229790
Book TitleShravak Pratikraman Sambandhi Prashnottar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandmal Karnavat
PublisherZ_Jinavani_002748.pdf
Publication Year2006
Total Pages6
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size77 KB
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