________________ जिनवाणी 15,17 नवम्बर 2006 णिक्कूडं सविसेसं बलाणरूवं वयाणुरूवं च / काओसग्गं धीरा करंति दुक्खक्खयट्ठार / / __ -मूलाचार, षडावश्यकाधिकार, गाथा 673 गाथार्थ- धीर मुनि मायाचार रहित, विशेष सहित, बल के अनुरूप और उम्र के अनुरूप कायोत्सर्ग को दुःखों के क्षय हेतु करते हैं। त्यागो देहममत्वस्य तनूत्सृतिरुदाहता। उपविष्टोपविष्टादिविभेदेन चतुर्विधा / / आर्तरौद्रद्वयं यस्यामुपविष्टेन चिन्त्यते / उपविष्टोपविष्टाख्या कथ्यते सा तनूत्सृतिः / / धर्मशुक्लद्वयं यत्रोपविष्टेन विधीयते / तामुपविष्टोत्थि तांकां निगदंति महाधियः / / आर्त्तरौद्रद्वयं यस्यामुत्थितेन विधीयते / तामुपविष्टोत्थितांकां निगदंति महाधियः / / धर्मशुक्लद्वयं यस्यामुत्थितेन विधीयते / उत्थितोत्थितनाम्ना तामाभाषन्ते विपश्चितः / / -मूलाचार, षडावश्यकाधिकार, गाथा 675, की आचारवृत्ति में उद्धृत श्लोक श्लोकार्थ- देह से ममत्व का त्याग कायोत्सर्ग कहलाता है। उपविष्टोपविष्ट आदि के भेद से वह चार प्रकार का हो जाता है॥१॥ जिस कायोत्सर्ग में बैठे हुए मुनि आर्त और रौद्र इन दो ध्यानों का चिन्तन करते हैं वह उपविष्टोपविष्ट कायोत्सर्ग कहलाता है।।२।। जिस कायोत्सर्ग में बैठे हुए मुनि धर्म और शुक्ल ध्यान का चिन्तन करते हैं बुद्धिमान् लोग उसको उपविष्टोत्थित कहते हैं।।३।। जिस कायोत्सर्ग में खड़े हुए साधु आर्त्त-रौद्र का चिन्तन करते हैं उसको उत्थितोपविष्ट कहते हैं॥४॥ जिस कायोत्सर्ग में खड़े होकर मुनि धर्म-ध्यान या शुक्ल ध्यान का चिन्तन करते हैं, विद्वान् लोग उसको उत्थितोत्थित कायोत्सर्ग कहते हैं / / 5 / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org