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अधिकाधिक गहराई में हो सकता है ।
अत: specialized ज्ञान के सन्दर्भ में केवलज्ञान संज्ञा बहुत ही अन्वर्थक बैठती है क्योंकि वह केवल' शब्द के व्युत्पत्यर्थ से मिलतीजुलती है ।
(७) कुमति-कुश्रुत-कुअवधि : तीन अवधारणाएँ :
‘मतिश्रुताऽवधयो विपर्ययश्च'२१-इस सूत्र का मतलब है कि मति-श्रुत और अवधि ये तीनों पर्याय लौकिक संकेत के अनुसार तो ज्ञान ही हैं परन्तु आध्यात्मिक शास्त्र के संकेत के अनुसार मति-श्रुत और अवधि ये तीने ज्ञानात्मक पर्याय मिथ्यादृष्टि के अज्ञान हैं और सम्यग्दृष्टि के ज्ञान ।
सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि का निकष इन्द्रियज्ञान अर्थात् मतिज्ञान के लिए उपयोजित करना, ठीक नहीं लगता । क्योंकि जिन जिन व्यक्तियों की इन्द्रियाँ सक्षम है, उनको प्रायः इन्द्रियज्ञानों से होनेवाला भेद थोडासा तरतमभाव रख के प्रायः समान ही होगा । समान इन्द्रियबोधों में से कुछ व्यक्तियों के बोध को 'सुमति-बोध' कहना
और कुछ लोगों के बोध को 'कुमति-बोध' कहना नीतिशास्त्रीय दृष्टि से ठीक नहीं है । व्यक्ति संसारभिमुख हो या मोक्षाभिमुख हो, इन्द्रियबोध तो समान ही होगा । और यह भी एक बात यह है कि सामान्यत: व्यक्ति सदा के लिए संसाराभिमुख और सदा के लिए मोक्षाभिमुख होता ही नहीं है । आसक्ति और विरक्ति का चक्र चलता ही रहता है।
तात्पर्य यह है कि इन्द्रियबोध सार्वजनीन और सार्वकालिक होने के कारण आध्यात्मिक निकष लगाकर, उन्हें अच्छा या बुरा कहना उचित नहीं है । उदाहरणार्थ व्यक्ति किसी भी प्रकार की हो, कौओ का रंग काला ही है शक्कर का स्वाद मीठा ही है । मोक्षाभिमुख व्यक्ति को भी इसका ज्ञान अन्य रूप से कभी नहीं होगा तो संसाराभिमुख व्यक्ति के ज्ञान को 'कुमतिज्ञान' कहने का हक हमें नहीं है । कोई व्यक्ति इन्द्रियों के अनुभवें का उपयोग आसक्ति में परिणत कर सकता तो कोई अनासक्ति में । संसार के लिए या मोक्ष के लिए पोषक होना या न होना पूर्णत: व्यक्तिसापेक्ष है । ऐन्द्रियज्ञान को हम 'कुमति' नहीं कह सकते ।
* जो बात मतिज्ञान के बारे में है वहीं श्रुतज्ञान के बारे में भी उपयोजित की जा सकती है। क्योंकि ग्रन्थरूप हो या मौखिक, श्रुतज्ञान एकरूप ही है। उससे क्या बोध लेना है, यह व्यक्ति के ऊपर निर्भर है। अत: ज्ञान में यथार्थता और अयथार्थता समाविष्ट नहीं होती । अगर ऐसा कहें कि जो श्रुतज्ञान असत्य है, भ्रमित करनेवाला है, नैतिक अध:पतन करानेवाला है, उसको मिथ्याज्ञान या कुश्रुत कह सकते हैं । जिन ग्रन्थों के नाम नन्दीकार ने मिथ्याश्रुत के अन्तर्गत दिये हैं उनमे से ज्यादातर ग्रन्थ व्यवहारोपयोगी ज्ञान का अवबोध कराते हैं । शालेय अभ्यासक्रम में भी जो वस्तुस्थिति-निदर्शक ग्रन्थ हैं जैसे कि इतिहास-भूगोल आदि, उनको हम मिथ्याश्रुत नहीं कह सकते चाहे वे मिथ्यादृष्टि पढ़ें या सम्यक्दृष्टि पढें ।
काव्य-चरित-पुराण आदि की बात तो और ही है। क्योंकि उनमें तो सत्य और कल्पित का एवं अदभुत का भी सम्मिश्रण होता है । यह बात जैनोंद्वारा लिखे हुए कथा-चरित-पुराणों को भी लागू होती है । जैनों ने लिखा हुआ साहित्य और जैनेतरोंद्वारा लिखा हुआ साहित्य इन दोनों में कोई मूलभूत फर्क नहीं है । वैसे भी अर्धमागधीग्रन्थों में भी तीन-चार ग्रन्थ निश्चित रूप से कथा-दृष्टान्तात्मक आधार से लिखे हए हैं । इसी तथ्य को परिलक्षित कर के नन्दीकार को मिथ्याश्रुत के बारे में विशेष टिप्पणी लिखनी पडी । इससे यही सिद्ध होता है कि ज्ञान केऊपर 'कु' या 'सु' सिक्का लगाना ठीक नहीं है ।
दूसरी एक बात यह है कि वैदिक परम्परा के दार्शनिक हो या जैन हो या बौद्ध, सब ने अपने-अपने मूलाधार ग्रन्थ, आम्नाय या आगम को श्रुत कहा है और उनको मोक्षोपयोगी ही माना है । अत: अनेकान्तवादी जैन दर्शन को यह नहीं चाहिए कि वे अपने शास्त्रों को ही मोक्षलक्ष्यी माने और दूसरों को नहीं । अगर मूल जैन परम्परा में अभिनिवेश होता तो उत्तराध्ययन एवं नन्दी जैसे ग्रन्थों में अन्यलिंगसिद्ध' यह संज्ञा मोक्षगामी जीवों के लिए प्रयुक