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से याने आत्मचेतना से होता है । आत्मा प्रतिव्यक्ति, प्रतिशरीर भिन्न-भिन्न है । वह अपने प्रारब्ध कर्म, भोग द्वारा समाप्त करता है और आत्मज्ञान के द्वारा मोक्ष प्राप्त करता है । २७
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जैनदर्शन का आत्मविचार प्राय: एक - दो मुद्दों का अपवाद करके वाक्यश: मीमांसा दर्शन से मिलता-जुलता है । फर्क इतना ही है कि जैन मत के अनुसार उपयोग अर्थात् ज्ञान-दर्शन-चेतना आत्मा का मुख्य गुण है औरसुख, दुःख आदि उसके पर्याय हैं ।" जैन मत के अनुसार आत्मा शरीरपरिमाण है लेकिन उनके मत से, ‘आत्मप्रदेशों की संख्या लोकाकाश के प्रदेशों से समतुल्य है ।'
(१५) मोक्षविचार :
जैन और जैमिनीय दोनों के आत्मविचार में जितना साम्य दिखाई देता है उतना साम्य पारिभाषिक शब्दों का अन्तर छोड के प्रायः दोनों के मोक्षविचार में भी दिखाई देता है ।
कुमारिलभट्ट के अनुसार, ‘प्रपञ्चसम्बन्धविलयो मोक्षः । २९ प्रभाकर के अनुसार, ‘आत्यन्तिकस्तु देहोच्छेदो मोक्षः ।’३० जैनों के अनुसार, 'कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः । कुमारिल के अनुसार मोक्षावस्था में जीव में आत्मज्ञान नहीं है, ज्ञानशक्ति मात्र I । जैनों का मत है कि मुक्त जीवों में सिद्धअवस्था में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसौख्य और अनन्तवीर्य होता है । जैन और जैमिनीय दोनों के मत से मुक्त आत्माएँ अनन्त तथा अनेक हैं और सत्तारूप में सदैव वें अवस्थित होते हैं । कुमारिल के अनुसार मोक्षप्राप्ति के बाद जीव का पुनर्जन्म नहीं होता । जैन मतके अनुसार भी मुक्तजीव पुनर्जन्मरहित ही होते हैं । अत: कुमारिल और जैन दोनों के मतों में अवतार - संकल्पना को कोई भी स्थान नहीं है ।
'प्रारब्धकर्मों को भोगकर नष्ट करना', जैनों की 'अकामनिर्जरा' है । 'नित्य - नैमित्तिक कर्मों द्वारा मोक्षमार्ग की बाधा दूर करने की तुलना', जैनियों की 'सकामनिर्जरा' से हम कर सकते हैं । 'काम्य और निषिद्ध कर्मों को छोडना’, जैनदृष्टि से ‘संवर’ हैं । जैन और जैमिनीय दोनों मानते हैं कि मोक्ष के लिए पाप और पुण्य देनों का सम्पूर्ण क्षय होना आवश्यक है ।
इस सबका मतलब है कि परिभाषिकता को छोडकर मोक्ष का स्वरूप और प्रक्रिया जैन और जैमिनीय दोनों में प्रायः एकरूप ही है ।
उपसंहार :
कर्मकाण्ड और यज्ञ के पुरस्कर्ता जैमिनीय और यज्ञसंस्था के प्रखर टीकाकार जैन, इन दोनों में दिखाई देनेवाली बाह्य विभिन्नता इतनी स्पष्ट है कि हम कल्पना भी नहीं कर सकते की इन दोनों में मूलभूत तत्त्वज्ञान के कोई समान प्रारूप हो सकते हैं । भारतीय संस्कृति की विशेषता, 'विविधता में एकता' इस सूत्र में अन्तर्भूत है । इसका उदाहरण बाह्यता भिन्न आविष्कारवाले जैन और जैमिनीय इन दोनों में हम प्रतीत कर सकते हैं, यदि हम दोनों के अन्तस्तल तक पहुँच जाए ।
* जैन प्राचीन ग्रन्थों में ‘विचारणा', 'पूछताछ ' इस अर्थ में 'मीमांसा' शब्द का प्रयोग पाया जाता है ।
* मीमांसा दर्शन जिस प्रकार वेदवाक्यों का अर्थ लगाने का शास्त्र है, उसी प्रकार जैन परम्परा में अनुयोगद्वार ग्रन्थ में निहित विचारणा के द्वारों के माध्यम से हम जैन आगमों की छानबीन अच्छी तरह से कर सकते हैं ।
* दोनों को 'शब्दप्रामाण्य' शिरोधार्य है । जैमिनीय वेदवाक्यों को शब्दश: प्रमाण मानते हैं, तो जैन भावार्थस् से आगमों को प्रमाण मानते हैं ।
* दोनों के आम्नाय या आगम विशिष्ट पुरुष द्वारा रचित अथवा ईश्वर द्वारा रचित नहीं है याने कि अपौरुषेय
है ।