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जैनदर्शन और जैमिनीयसूत्र : कुछ तौलनिक निरीक्षण (अखिल भारतीय दर्शन परिषद, ५७ वाँ अधिवेशन, पारनेर,महाराष्ट्र, १२ से १४ जनवरी २०१३)
विषय व मार्गदर्शन -: डॉ. नलिनी जोशी
घर का पता : (प्राध्यापिका, जैन अध्यासन, पुणे विद्यापीठ) डॉ. अनीता सुधीर बोथरा शोधछात्रा -: डॉ. अनीता बोथरा.
प्लॉट नंबर ४४, लेन नंबर ८, (संशोधक सहायिका, जैन अध्यासन, पुणे विद्यापीठ) ऋतुराज सोसायटी,
पुणे ४११०३७
दिनांक : ८/१/२०१३ विषय का चयन :
विषय के शीर्षक से श्रोताओं को लगेगा कि भारतीय दार्शनिक धारओं में श्रमण और ब्राह्मण ये जो दो परम्पराएँ निहित हैं, उनमें से किन्हीं दो श्रमण दर्शनों की अथवा किन्हीं दो ब्राह्मण दर्शनों की तुलना हो सकीतहै । लेकिन यहाँ बाह्यतः परस्परविरोधी लगनेवाले दो दर्शन तौलनिक निरीक्षणों के लिए चुने हैं । यज्ञप्रधान, कर्मकाण्डप्रधानतथा लोकानुश्रुति के द्वारा हिंसाप्रधान होनेवाले जैमिनीयदर्शन' तथा कर्म की निवृत्ति पर बल देनेवाला, यज्ञीय हिंसका निषेध करनेवाला 'जैनदर्शन' - इन दोनों की तुलना करना योग्य है या नहीं ? - इस प्रश्न का जवाब खोजते-खोजते समग्र भारतीय विचारधाराओं के स्रोत के प्रति जैन परम्परा में उल्लिखित विचार सामने आये ।
दृष्टिवाद एवं पूर्व साहित्य की पृष्ठभूमि :
___ जैन परम्परा के अनुसार समग्र जैन साहित्य का मूलस्रोत 'दृष्टिवाद' नामक ज्ञानभाण्डार है, जो आज अनुपलब्ध है । दृष्टिवाद एवं उसके एक विभाग स्वरूप होनेवाले पूर्वग्रन्थों में निहित विषयों पर जब हम दृष्टिपत करते हैं तो उसका धर्म -सम्प्रदायातीत- विशाल वैचारिक स्वरूप उभरकर सामने आता है । दृष्टिवाद नाम से ही यह सूचित होता है कि सत्य की ओर देखने की ये दृष्टियाँ अथवा विविध विचारधाराएँ हैं । जैसा कि ऋग्वेद में कहागया है, एकं सविप्रा बहुधा वदन्ति । जैनविद्या के प्रथितयश संशोधक डॉ. हीरालाल जैन, 'दृष्टिवाद' की समीक्षा समग्र भारतीय संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में करते हुए लिखते हैं कि, “इन पूर्व' नामक रचनाओं के अन्तर्गत तत्कालीन न केक धार्मिक, दार्शनिक और नैतिक विचारों का संकलन किया गया था किन्तु नानाविध कला, विद्या एवं मन्त्र-तन्त्रादि विषयों का भी समावेश कर दिया गया था । ये रचनाएँ प्राचीन काल का भारतीय ज्ञानकोष कही जाय तो अनुचित न होगा।"२
इन मूलस्रोतों में से अपने-अपने अनुकूल विचारधाराओं का एकत्रीकरण करते हुए, धीरे-धीरे लगभग २००० वर्षों के अवकाश में विविध भारतीय दार्शनिक धाराएँ सुप्रतिष्ठित हुई । जैन साहित्य में विद्यमान विभिन्न वैचारिक्याराओं के सूचक कई उल्लेख पाये जाते हैं । प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के समसामायिक ३६३ मतों का निर्देश जैन पुराणोंमें पाया जाता है । अर्धमागधी आगम सूत्रकृतांग में 'समवसण' का अर्थ प्रमुखता से, 'विविध वादों का संगम' ही बताया है । किंबहुना सूत्रकृतांग की पूरी रचना ही, स्वसिद्धान्त एवं परसिद्धान्त' के मण्डणार्थ की गयी है । ऋषिभाषितमें निहित विभिन्न ऋषियों के नाम एवं उनके विचार इसी तथ्य की ओर निर्देश करते हैं।
इस शोधलेख में यह प्रयास किया गया है कि जैन और जैमिनीय दोनों के बाह्य आविष्कार भिन्न होने के बावजू भी उनमें कौन-कौनसा अन्तरंग साम्य है, जो दोनों दर्शनों ने ज्ञानकोषस्वरूप पूर्वग्रन्थों से स्वीकृत कियाहै ।
(२) मीमांसा शब्द का मलार्थ और जैन ग्रन्थों में उलेख :
चिन्तन एवं विचारपरक ‘मन्' क्रियापद का इच्छार्थक रूप मीमांसा है । उसका अर्थ है, गहन विचार, पूछताछ,