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मार्च २०१०
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चैत्यों को नमन करें । अष्टापद तीर्थस्थित ऋषभादि वर्धमान चौवीस तीर्थंकरों को साष्टांग नमस्कार करें । (१४) अतीत, वर्तमान और अनागत अर्हतों, केवलियों, सिद्धों और भरत, ऐरवत, महाविदेह क्षेत्र में विद्यमान साधुओं को नमस्कार करें।
देवार्चन हेतु स्नानादि कर शुद्ध धोती पहनकर, शुद्ध उत्तरीय वस्त्र धारण कर गृहचैत्य में दक्षिण चरण से प्रवेश करें । (२०) मन्दिर में प्रवेश कर धरणेन्द्र आदि सेवित पार्श्व प्रतिमा का, एकाग्र मन से निरीक्षण करें । (२१) प्रतिमा का मोरपिच्छी से सम्मान करें । परिकर युक्त प्रतिमा को चंदन मिश्रित जल से स्नपित करें । घृत दीप जलाकर चन्दन का विलेपन करें । अलंकारादि से विभूषित करें । पुष्प पूजा करें । गीत गान करें । सुगंधित धूप करने के पश्चात् आरती उतारें । तदनंतर घण्टा बजायें और विविध वादित्रों के साथ संगीतमय प्रभु की स्तुति करें और प्रभु के समक्ष नृत्य करें । मन्दिर से निकलते समय द्वार पर याचकों को दान देकर घर आयें और स्वधर्मी बन्धुओं के साथ अतिथि संविभाग का पालन करते हुए निरवद्य आहार करें ।
(३०) मंगल चैत्य पर्युपासना रूप धर्म के समान अन्य कोई सुकृत नहीं है । नवम पूर्व में भी इसे ही सुधर्म बतलाया है ।
(३१) केवली भगवंत सिद्धान्तों में चार महामंगल कहते हैं - अरहंत, सिद्ध, साधु और अर्हत धर्म का शरण स्वीकार करे । इन चारों महामंगलों का छठे पूर्व में वर्णन प्राप्त है।
(३३) देशविरति द्रव्य तथा भाव पूजा करे और संयमी केवल भाव पूजा करें।
___ बादरायण, ऋषि कूप, अर्बुदगिरि और अष्टापदादि स्थानों में ध्यानसाधना करने पर साधक विरज और तमरहित होता है। (३७) शुद्ध सम्यक्त्वधारी इस देवतत्त्व की आराधना कर धार्मिक होकर वीतराग बनता है ।
तृतीय अध्याय - तृतीय अध्याय में १६ गद्य सूत्र हैं जिनमें देशव्रतधारियों के व्रतों का विवेचन है । सम्यक्त्व धारण करने वाला उपासक बारह व्रतों को ग्रहण करता है । निरतिचारपूर्वक व्रतों का पालन करते हुए अन्तिमावस्था में निर्जरा हेतु उपासक की ११ प्रतिमाओं को वहन करता है ।