________________
११८
अनुसन्धान-५७
है, उनकी विश्वसनीयताको पूरी तरह नकारा भी नहीं जा सकता है ।
यह सत्य है कि जैनागमों में विक्रमादित्य सम्बन्धी कोई भी उल्लेख उपलब्ध नहीं है । जैनसाहित्य में विक्रमसंवत प्रवर्तक विक्रमादित्य का सम्बन्ध दो कथानकों से जोड़ा जाता है - प्रथम तो कालकाचार्य की कथा से और दूसरा सिद्धसेन दिवाकरके कथानक से । इसके अतिरिक कुछ पट्टावलियों में भी विक्रमादित्य का उल्लेख है। उनमें यह बताया गया है कि महावीर के निर्वाण के ४७० वर्ष पश्चात् विक्रम संवत का प्रवर्तन हुआ और यह मान्यता आज बहुजन सम्मत भी है । यद्यपि कहीं ४६६ वर्ष और ४५ दिन पश्चात् विक्रम संवत का प्रवर्तन माना गया है । तिलोयपण्णत्ति का जो प्राचीनतम (लगभग-पांचवी-छठी सदी) उल्लेख है। उसमें वीरनिर्वाण के ४६१ वर्ष पश्चात् शकराजा हुआ - ऐसा जो उल्लेख है उसके आधार पर यह तिथि अधिक उचित लगती है - क्योंकि कालक कथाके अनुसार भी वीरनिर्वाण के ४६१ वर्ष पश्चात् कालकसूरिने गर्दभिल्ल को सत्ता से च्युत कर उज्जैनी में शक शाही को गद्दी पर बिठाया और चार वर्ष पश्चात् गर्दभिल्ल के पुत्र विक्रमादित्यने उन्हें पराजित कर पुनः उज्जैन पर अपना शासन स्थापित किया। दूसरी बार पुनः वीरनिर्वाण के ६०५ वर्ष और पांच माह पश्चात् शकोने मथुरा पर अपना अधिकार-शक शासनकी नीव डाली और शकसंवत् का प्रवर्तन किया । इस बार शको का शासन अधिक स्थायी रहा । इसका उन्मूलन चन्द्रगुप्त द्वितीयने किया और विक्रमादित्य का बिरुद धारण किया । मेरी दृष्टिमें उज्जैनी के शक-शाही को पराजित करनेवाले का नाम विक्रमादित्य था, जबकि चन्द्रगुप्त द्वितीय की यह एक उपाधि थी । प्रथम ने शको से शासन छीनकर अपने को 'शकारि' बिरुद से मण्डित किया था । क्योंकि शकों ने उसके पिता का राज्य छीना था अतः उसके शक अरि या शत्रु थे अतः उसका अपने को 'शकारि' कहना अधिक संगत था । दूसरे विक्रमादित्यने अपने शौर्य से शकों को पराजित किया था अतः विक्रम = पौरुष का सूर्य था ।
यद्यपि निशीथचूर्णि में कालकाचार्य की कथा विस्तार से उपलब्ध है किन्तु उसमें गर्दभिल्ल द्वारा कालक की बहिन साध्वी सरस्वती के