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________________ मार्च २०१० १०९ जैनियों के लिए उनके व्रतस्वरूप आचरण का कोई प्रावधान नहीं बना था । (३) व्रतविषयक साहित्य की द्वितीयावस्था : आगमकाल में विविध प्रकार के तपों का निर्देश है। उत्तरकाल में तपों का विस्तार से वर्णन करते करते धीरे धीरे तप के साथ विविध प्रकार की विधियाँ जुड गयी । तपोविधि के साथ फल भी अल्पांश मात्रा में निर्दिष्ट होने लगे । यह द्वितीयावस्था ख्रिस्ताब्द छट्ठी शती से दसवीं सदी तक के ग्रन्थों में पायी जाती है। जटासिंहनन्दिकृत 'वरांगचरित' यह संस्कृत ग्रन्थ, डॉ. ए.एन्.उपाध्ये के अनुसार सातवी शताब्दी का है। आगमोक्त तपों को उन्होंने 'सत्तप' कहा है।२९ उनको 'व्रत' संज्ञा नहीं दी है। व्रत शब्द के अनेक समास ग्रन्थ में दिखायी देते हैं लेकिन वे सब प्रायः साधुव्रत तथा श्रावकव्रत के सन्दर्भ में हैं ।३० फलनिष्पत्ति के कथन की प्रवृत्ति दिखायी देती है ।३१ जिनप्रतिमा, जिनपूजा, प्रतिष्ठा आदि का सुविस्तृत वर्णन पाया जाता है ।३२ किसी भी नये सुलभ व्रतों का निर्माण उन्होंने नहीं किया है। हरिवंशपुराण (८वी शताब्दी)३३ तथा आदिपुराण (९वी शताब्दी)३४ में आगमोक्त तपों का संक्षिप्त वर्णन है । कुछ तपों को 'विधि' कहा है। स्वर्ग तथा मोक्ष इन दोनों फलों का जिक्र किया है। उपवास की प्रधानता है। उद्यापन नहीं है। दसवी शताब्दी में तो तपोविधि के लिए व्रत शब्द का आम उपयोग होने लगा ।३५ यह तथ्य गुणभद्रकृत 'उत्तरपुराण' ग्रन्थ के निम्नलिखित श्लोक से उजागर होता है। व्रतात्प्रत्ययमायाति निव्रतः शङ्कयते जनैः । व्रती सफलवृक्षो वा निव्रतो वन्ध्यवृक्षवत् ॥३६ इस प्रकार वरांगचरित से लेकर उत्तरपुराण तक के ग्रन्थों में व्रतसाहित्य की द्वितीयावस्था दिखायी देती है । (४) व्रतविषयक साहित्य की तृतीयावस्था : व्रतविषयक साहित्य की तृतीयावस्था लगभग ११वी शती से आरम्भ
SR No.229694
Book TitleHindu aur Jain Vrat Ek Kriya Pratikriyatmaka Lekha Jokha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnita Bothra
PublisherZZ_Anusandhan
Publication Year
Total Pages20
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size145 KB
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