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माटे आ रीते वाक्य मूक्युं छे : पापप्रतिघातगुणबीजाधानसूत्रे हरिभद्रसूरिभिरप्येतद्भवसम्बन्धि भवान्तरसम्बन्धि वा पापं यत्-तत्पदाभ्यां परामृश्य मिथ्यादु-ष्कृतप्रायश्चित्तेन विशोधनीयमित्युक्तम् । तथा हि- 'सरणमुवगओ अ एएसि.... इत्थ मिच्छामि दुक्कडं ३॥९ ..
(अर्थात् , हरिभद्रसूरिए पण, आ भव संबंधी अने भवांतर संबंधी पापनो 'यत् तत्' पदो वडे परामर्श करीने तेने मिथ्यादुष्कृतरूपी प्रायश्चित्त द्वारा शोधवानुं छे एम कर्तुं छे. ते आ रीते-'आम कहीने आ पछी पंचसूत्रना प्रथम सूत्रनो एक गद्यखंड मूक्यो छ अने ते पछी तेनुं अर्थघटन उपाध्याय श्रीयशोविजयजीए पोतानी रीते कर्यु छे ते छे.)
उपर जणावेला पाठमां श्रीयशोविजयजीए ‘पापप्रतिघातगुणबीजाधानसूत्रेतृतौ श्रीहरिभद्रसूरिभिरप्युक्तम्' एम स्पष्ट लख्युं छे, पण 'पापप्रतिघातगुणबीजाधानसूत्रवृत्तौ' के 'पञ्चसूत्रवृत्तौ' एवं नथी लख्युं ते नोंधपात्र मुद्दो छे. आ सूचवे छे के यशोविजयजी पासे कोइ एवी खातरीभरेली परंपरा विद्यमान हशे के जेमां पञ्चसूत्र हरिभद्रसूरिनी रचना होवानुं स्पष्टतया प्राप्त होय. ए सिवाय तेओ सहेलाइथी, वगरविचार्ये आq मानी ले अने आवो वाक्यप्रयोग करे ते संभवित नथी लागतुं.
४. पञ्चवस्तुक, पञ्चसूत्रक, अष्टक, षोडशक, विशिका, पञ्चाशक - आ प्रकारनां नामो ए जैन साहित्यजगतमा मात्र हरिभद्राचार्यना ज फाळे जती विशेषतारूप छे. बीजा कोई पण कर्ताए आ प्रकरण ने 'पञ्चसूत्र' के 'पञ्चसूत्री' नामे ज ओळखाव्युं होत. पञ्चसूत्रक नाम हरिभद्रसूरिजीने ज सूझे. पञ्चसूत्रक नी व्युत्पत्ति अंगे मार्गदर्शन आपतां मुनि श्रीजंबूविजयजी लखे छे के -
'आ.हरिभद्रसूरिजी महाराजे रचेला एक ग्रंथर्नु नाम व्यवहारमा ‘पञ्चवस्तु' ए रीते प्रचलित छे, छतां तेमणे तो तेनुं 'पञ्चवस्तुक' नाम राखेलुं छे, अने तेनी व्युत्पत्ति पण ए रीते ज तेमणे दर्शावेली छे. जुओ आ पंचसूत्रक ग्रंथमां पृ. ८० टि. ५. 'पञ्चसूत्रक' शब्दनी व्युत्पत्ति तथा अर्थ पण ए रीते ज समजी लेवाना छे.२०
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