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________________ 89 पञ्चवस्तुक-उपदेशपद-पञ्चाशक-अष्टक-षोडशक-विशिकालोकतत्त्वनिर्णय-धर्मबिन्दु-योगबिन्दु-योगदृष्टिसमुच्चय-दर्शनसप्ततिकानानाचित्रक-बृहन्मिथ्यात्वमथन-पञ्चसूत्रक-संस्कृतात्मानुशासनकोशादि-शास्त्राणां गावः ।। 'चतुर्विंशति प्रबंध' (पृ. ५२)मां नीचे जणाव्या प्रमाणे १११ ग्रंथोनो उल्लेख छ : (प्रबंधकोश, पृ. २५) १. अनेकांतजयपताका, २. अष्टक, ३. नाणायत्तक, ४. न्यायावतारवृत्ति, ५. पंचलिंगी, ६. पंचवस्तुक, ७. पंचसूत्रक, ८. पंचाशत् , ९-१०८. सो शतक,१०९. श्रावकप्रज्ञप्ति, ११०. षोडशक, १११.समरादित्यचरित्र.६८ आ उल्लेख द्वारा स्पष्ट छे के ‘पञ्चसूत्रक' ए श्री हरिभद्रचार्यनी ज कृती हती, अने ते विशे, चौदमा सैका सुधी तो कोई विसंवाद न ज हतो. श्री ही. र. कापडिया निर्देशे छे तेम तो गणधरसार्धशतकनी पद्ममंदिरगणि (सं.१६७६) कृत वृत्ति पण उपरोक्त यादीने ज दोहरावे छे ; तेथी सत्तरमा शतकमां पण 'पंचसूत्र' अन्य कर्तार्नु होवानी धारणा झाझी प्रचलित न हती ते सिद्ध थई शके छे. आम, अंतरंग अने बहिरंग परीक्षणोना परिपाकथी प्राप्त थतां प्रमाणोना आधारे पञ्चसूत्र मूळ श्रीहरिभद्रसूरिकर्तृक ज होवानुं सिद्ध थाय छे. आ पञ्चसूत्र ए श्रीहरिभद्राचार्यना जीवननी परवर्ती एटले के जीवनना संध्याकाळे तेमणे रचेली, पोताना जीवनना तथा जीवनभर करेला शास्त्रसेवनना निचोडरूप रचना होवी जोईए. योगमार्गमां, योगनी उन्नत भूमिका पर स्वयं आरूढ थई गया पछीनी सहज आत्ममस्तीनी अनुभूतिनी सहज अभिव्यक्तिरूप आ कृति होय तो ना नहि. 'योगदृष्टिसमुच्चय' मां चर्चेली युक्ति-प्रयुक्तिओ आ सूत्रमा एकदम ढूंकां वाक्योमां पण संभवतः त्यां करतां वधु सरस रीते रजू थई छे ते जोतां, तेम ज 'पञ्चसूत्र-वृत्ति' मां एक स्थाने 'योगदृष्टिसमुच्चयं' नु६९ उद्धरण पोते ज टांक्युं छे ते जोतां, आ कृति, 'योगदृष्टिसमुच्चय' वगैरे ग्रंथोनी रचना पछीथी ज रचाई हशे तेम मानी शकाय. तेओए पहेला अन्यान्य विषयोना . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229685
Book TitlePanchsutra na Karta Kon Chirantanacharya ke Haribhadra Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherZZ_Anusandhan
Publication Year
Total Pages23
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size504 KB
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