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होवानी मान्यता तो सत्तरमा शतक करतां बहु वधू जूनी नथी त्यारे, अने उपर विस्तारथी चर्चेला, आ सूत्र हरिभद्रसूरि-प्रणीत होवा अंगेना प्रमाणो प्राप्त थयां छे त्यारे, पंचसूत्रना अंते मूकेलुं 'कृतिः सिताम्बरा ० ' ए वाक्य श्रीहरिभद्रसूरिजीनुं पोतानुं ज छे अने ते, सूत्र तथा टीका - बन्नेना संदर्भमां प्रयोजायेलुं छे, ए नक्की थाय छे. वळी, 'भवविरह' शब्दनो साक्षात् प्रयोग भले नथी थयो, पण भंग्यंतरथी ए शब्दनो भाव तो कर्ताए मूक्यो छे. 'भवविरह' एटले 'मोक्ष'. तेनी याचना के आशंसा तेमणे दरेक कृतिने अंते करी होय छे. सामान्यतः आ आशंसा 'भवविरह' शब्द द्वारा निषेधात्मक के नकारात्मक रूपे - भवनो विरह (मोक्ष) हो ! - ए रीते तेओ रजू करे छे. 'पञ्चसूत्र' ना छेल्ला वाक्यमां पण कर्ताए मोक्षनी आशंसा तो व्यक्त करी ज छे, पण ते विरह शब्दथी नहि, किंतु 'निःश्रेयस' शब्द द्वारा विधेयात्मक के हकारात्मक रूपे करी छे. जुओ पंचसूत्रनुं अंतिम वाक्यः
'एसा करुण त्ति वुच्चइ एगंतपरिसुद्धा अविराहणाफला तिलोगनाहबहुमाणेणं निस्सेयससाहिग त्ति पव्वज्जाफलसुत्तं ॥ ६७
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जो विरह शब्द माटे ज आग्रह सेववामां आवे तो ते आ 'पंचसूत्र' नी हरिभद्रसूरि-प्रणीत मनाती टीकाना अंतभागमां पण क्यांय 'विरह' शब्द जोवा मळतो नथी, तेथी टीकाने पण हरिभद्रसूरि-प्रणीत मानवामां वांधो आवशे. आधी 'निःश्रेयस' शब्दने ज भवविरहनो पर्याय समजीने आ कृतिने श्रीहरिभद्रसूरि महाराज साथे सांकळवामां पूरतुं औचित्य छे.
श्रीहरिभद्रसूरिकृत ग्रंथ विशे प्राचीन ग्रंथकारो के वृत्तिकारो कोई नोंध के निर्देश आपे छे के केम ? ते दिशामां खोज करतां नीचे नोंधेला बे उल्लेखो मळी आवे छे.
हरिभद्रसूरिए कया कया ग्रंथो रच्या छे एनी नोंध प्राचीन तेम ज अर्वाचीन लेखकोए आपी छे. तेमां आपणे अहीं प्राचीन नोंधो विशे विचारीशुं.
(१) 'गणहरसद्धसयग' उपर सुमतिगणिए वि. सं. १२९५मां संस्कृतमां बृहद्वृत्ति रची छे. गा. ५५नी वृत्तिमां एमणे हरिभद्रसूरिनी कृतिओ गणावी छे.
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