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________________ 88 होवानी मान्यता तो सत्तरमा शतक करतां बहु वधू जूनी नथी त्यारे, अने उपर विस्तारथी चर्चेला, आ सूत्र हरिभद्रसूरि-प्रणीत होवा अंगेना प्रमाणो प्राप्त थयां छे त्यारे, पंचसूत्रना अंते मूकेलुं 'कृतिः सिताम्बरा ० ' ए वाक्य श्रीहरिभद्रसूरिजीनुं पोतानुं ज छे अने ते, सूत्र तथा टीका - बन्नेना संदर्भमां प्रयोजायेलुं छे, ए नक्की थाय छे. वळी, 'भवविरह' शब्दनो साक्षात् प्रयोग भले नथी थयो, पण भंग्यंतरथी ए शब्दनो भाव तो कर्ताए मूक्यो छे. 'भवविरह' एटले 'मोक्ष'. तेनी याचना के आशंसा तेमणे दरेक कृतिने अंते करी होय छे. सामान्यतः आ आशंसा 'भवविरह' शब्द द्वारा निषेधात्मक के नकारात्मक रूपे - भवनो विरह (मोक्ष) हो ! - ए रीते तेओ रजू करे छे. 'पञ्चसूत्र' ना छेल्ला वाक्यमां पण कर्ताए मोक्षनी आशंसा तो व्यक्त करी ज छे, पण ते विरह शब्दथी नहि, किंतु 'निःश्रेयस' शब्द द्वारा विधेयात्मक के हकारात्मक रूपे करी छे. जुओ पंचसूत्रनुं अंतिम वाक्यः 'एसा करुण त्ति वुच्चइ एगंतपरिसुद्धा अविराहणाफला तिलोगनाहबहुमाणेणं निस्सेयससाहिग त्ति पव्वज्जाफलसुत्तं ॥ ६७ , जो विरह शब्द माटे ज आग्रह सेववामां आवे तो ते आ 'पंचसूत्र' नी हरिभद्रसूरि-प्रणीत मनाती टीकाना अंतभागमां पण क्यांय 'विरह' शब्द जोवा मळतो नथी, तेथी टीकाने पण हरिभद्रसूरि-प्रणीत मानवामां वांधो आवशे. आधी 'निःश्रेयस' शब्दने ज भवविरहनो पर्याय समजीने आ कृतिने श्रीहरिभद्रसूरि महाराज साथे सांकळवामां पूरतुं औचित्य छे. श्रीहरिभद्रसूरिकृत ग्रंथ विशे प्राचीन ग्रंथकारो के वृत्तिकारो कोई नोंध के निर्देश आपे छे के केम ? ते दिशामां खोज करतां नीचे नोंधेला बे उल्लेखो मळी आवे छे. हरिभद्रसूरिए कया कया ग्रंथो रच्या छे एनी नोंध प्राचीन तेम ज अर्वाचीन लेखकोए आपी छे. तेमां आपणे अहीं प्राचीन नोंधो विशे विचारीशुं. (१) 'गणहरसद्धसयग' उपर सुमतिगणिए वि. सं. १२९५मां संस्कृतमां बृहद्वृत्ति रची छे. गा. ५५नी वृत्तिमां एमणे हरिभद्रसूरिनी कृतिओ गणावी छे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229685
Book TitlePanchsutra na Karta Kon Chirantanacharya ke Haribhadra Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherZZ_Anusandhan
Publication Year
Total Pages23
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size504 KB
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