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आनुं प्राकृत रूपांतर में 'वज्जालग्ग 'मांथी मारा 'सिद्धहेम'ना अपभ्रंश विभागना अनुवादमां में नोंध्युं छे. (पृ. १८३)
(२) अम्मि पयोधर वज्जमा, निच्चु जे संमुक थंति । महु कंतो समरंगण, गय- घड भज्जिउ जंति । ( ३९५, ५)
आ साथै सरखावो नीचेना दुहानो उत्तरार्ध :
लेटाकर वित आपणा, देतो रजपूतांह ।
धड धरती पग पागडे, आंतर गोधडीआंह ||
('दुहो दशमो वेद', क्रमांक ३६६ )
'माडी मारा स्तन वज्र जेवा छे, कारण के ते सदैव मारा कान्तनी सन्मुख रहे छे, ज्यारे समरांगणमां गजघटाओ पण मारा कान्त पासेथी हारीने भागी जाय छे ?
आ साधे सरखावो :
शैल धर्मका क्यों सह्या, क्यों सहिआ गज- दंत । कठण पयोधर खूंचतां, तुं कणकणियो' तो कंथ | ( उक्त पुस्तक क्रमांक २११ )
'शत्रुंजयमंडन - ऋषभदेव स्तुति' : थोडी पूर्ति
मुनि भुवनचंद्रजी संपादित आ कृति 'अनुसंधान - ५' मां (पृ.४०-४३) मुद्रित थयेली छे. त्यां एना कर्ता विजयदानसूरि शिष्य 'वासणा' ( वासण ? ) साधु जणावेल छे अने 'जैन गूर्जर कविओ' तथा 'गुजराती साहित्यकारो ( मध्यकाल ) 'नो हवालो आपवामां आव्यो छे.
जयंत कोठारी
'अनुसंधान - ६' मां मुनि भुवनचन्द्रजी आ कृतिनी अन्य बे हस्तप्रतोनी माहिती आपे छे अने संस्कृत टीकावाळी प्रतमां आरंभे स्पष्ट रीते विजयतिलक
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