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________________ १६४ अनुसन्धान ४९ ऋग्वेद, अथर्ववेद तथा महाभारत में नारद पशुहिंसासमर्थक याज्ञिकों से संवाद-चर्चा तथा वादविवाद करते हुए दिखायी देता है । उत्तरकालीन पौराणिक परम्परा ने यह अंश 'कलहप्रियता' में रूपांतरित किया । फिर भी 'नारद का कलह अन्तिमतः कल्याणकर होता है इस प्रकार नारद की कलहप्रियता का समर्थन भी किया । पाचवीछठी शताब्दी के अनंतर के जैन ग्रन्थों में कलहप्रियता का यह अंश ज्यादा ही आगे बढाकर उसे अपहरण, युद्ध आदि से जोड़ दिया। दोनो परम्पराओं ने नारद, स्त्रियों के सम्पर्क में रहने की बात तो अधोरेखित की है लेकिन जैन साहित्य में स्त्रियों के कलहप्रिय स्वभाव को अग्रस्थान में रखकर कलह-अपहरण आदि प्रसङ्ग के लिए नारद को जिम्मेदार ठहराया है। वैदिक परम्परा ने नारद को 'देवर्षि' ही माना । जैनियों ने यद्यपि उनके दैवतशास्त्र में यथानुकूल स्थान दिया तथापि 'निम्नजातीय वानव्यन्तरों में भी उन्हें रखा तथा पाचवे ब्रह्मलोक नामक स्वर्ग में भी 'नारद' नाम का स्पष्ट निर्देश न करके देवर्षियों को रखा । भागवतपुराण आदि ग्रन्थों में नारद का भगवद्भक्त होना, कृष्ण के गुणों का नामसंकीर्तन करना आदि के रूप में नारद का नाम भक्तिसम्प्रदाय का द्योतक होने लगा। जैन ग्रन्थों में यद्यपि नारद का सम्बन्ध गन्धर्वविद्या से जोडा है तथापि यह अंश भक्तिसम्प्रदाय में परिणत नहीं हो सका । क्योंकि जैन मान्यतानुसार 'कृष्ण' एक वासुदेव है जो उच्च आध्यात्मिक आदर्श के रूप में मान्यताप्राप्त नहीं वेदोत्तरकालीन परम्परा में नारद के नाम पर नारदी शिक्षा, नारदोपनिषद्, नारदस्मृति तथा नारदपुराण आदि ग्रन्थ निर्माण हुए । उस परम्परा में नारद का महत्त्व इस प्रकार अधोरेखित होता है। जैन परम्परा ने नारदीय विचारधारा का समादर तो किया है लेकिन उत्तरवर्ती ग्रन्थों में केवल 'एक मिथक' के रूप में ही उसकी प्रवृत्तियाँ दिखायी देती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229669
Book TitleNarad ke Vyaktitva ke Bare me Jain Grantho me Pradarshit Sambhramavastha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaumudi Baldota
PublisherZZ_Anusandhan
Publication Year
Total Pages25
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size557 KB
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