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अनुसन्धान ४९
भवंति ।'६६ अर्थात् यह स्पष्ट होता है कि युगयुग में होनेवाले कच्छुल्लनारद की परिकल्पना त्रिलोकप्रज्ञप्ति के अनुसार इन्हें भी मंजूर है ।
वसुदेवहिण्डी में उद्धृत सभी नारदविषयक सन्दर्थों की छानबीन करने के बाद यह लगता है कि इनके सामने, इनके पूर्व जो-जो भी नारद प्रस्तुत किये गये हैं उन सभी का समावेश यहाँ कहीं ना कहीं किया है । लेकिन पउमचरियं से 'अज-वसु' वृत्तान्त स्वीकार करके भी इन्होंने नारद को रामचरित से कहीं भी जोडा नहीं है। इससे यह स्पष्ट होता है कि "नारद एक है, दो हैं, तीन हैं या युगयुग में होनेवाले अनेक हैं" इसके बारे में वसुदेवहिण्डी के लेखक कुछ संभ्रमित अवस्था में ही है । लेकिन उनके प्रस्तुतीकरण की शैली से यह विदित होता है कि उनका झुकाव आदरणीय नारद के प्रति जादा है। आख्यानकमणिकोश-टीका में 'कलहप्रिय' नारद :
आख्यानमणिकोश-टीका में (बारहवीं सदी) नारदसम्बन्धी वृत्तांत चार अलगअलग कथाओं में आये हैं । जैन तथा हिन्दु परम्परा में बिखरे हुए अनेक वृत्तान्तों से लेखक ने चार वृत्तान्त इस प्रकार चुने हैं जिसमें नारद की कलहप्रियता एवं युद्धप्रियता स्पष्टतः दिखायी देती है । कालविपर्यय तथा एकांगी चित्रण आख्यानकमणिकोश के नारद की विशेषता है । नायाधम्मकथा का कच्छुल्लनारद ही इसका प्रेरणास्थान है। एक जगह नारद का उल्लेख 'ऋषिनारद' के तौर पर किया है लेकिन ऋषिभाषित का यहाँ कोई भी जिक्र नहीं किया है ।
ऋषभदेव के युद्धपर उतरे हुए पुत्रों की खबर नारद, विद्याधर प्रल्हाद राजा को देता है। राम और रावण के बीच संघर्ष के बीज भी नारद द्वारा ही बोये गये हैं । द्रौपदीद्वारा अपमानित होकर, उसके अपहरण के लिए पद्मनाभ राजा को यही नारद उकसाता है । सत्यभामा से अपमानित होने के कारण यह कृष्ण और रुक्मिणी का विवाह करवाता है ।६७ इनका 'ब्राह्मणत्व' तो लेखक ने स्पष्ट किया है लेकिन इनका प्रत्येकबुद्धत्व या प्रव्रज्या आदि के कोई संकेत नहीं दिये हैं । कालविपर्यासात्मक संभ्रमावस्था तो इनमें है लेकिन नारद की कलहप्रियता के बारे में उनकी द्विधावस्था नहीं है।
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