________________ जून - 2012 105 "विक्कमरज्जारंभा, पुरओ सिरिवीरनिव्वुई भणिया / सुन्नमुणिवेयजुत्तो, विक्कमकालाउ जिणकालो // " (-माथुरी गणना) "विक्कमरज्जाणंतर, तेरसवासेसु वच्छरपवित्ती / सिरिवीरमुक्खओ वा, चउसयतेसीइवासाओ // " (-वालभी गणना) आ गाथाओ वी.नि.सं.जै.का.- पृ. 146 पर आपवामां आवी छे. वी.नि.सं.जै.का. - वीरनिर्वाण संवत् और जैन कालगणना, ले. - मुनिश्री कल्याणविजयजी, प्र. - क.वि. शास्त्रसमिति - जालोर, वि.सं. 1987 पूर्ति अनुसन्धान-५७, पृष्ठ 93 पर उत्तराध्ययन-नियुक्तिनी अेक गाथाना अर्थ विशे विचार करवामां आव्यो हतो. "मोत्तूण ओहिमरणं, आवीची आइयंतु(ति)तं चेव / सेसा मरणा सव्वे, तब्भवमरणेण णेयव्वा // 5.16 / / अवधिमरण, आत्यन्तिकमरण अने आवीचीमरणने छोडीने शेष मरण विशे तद्भवमरण प्रमाणे जाणवू. अर्थात् तद्भवमरणमां जे स्वामित्वव्यवस्था छे ते आ मरणमां पण समजवी. हमणां जाणवा मळ्युं के आ गाथा 'आवी(ई)यंतियंतियं' अवा पाठभेद साथे प्रवचनसारोद्धार (-नेमिचन्द्रसूरि)मां पण १५७मा द्वारमां मळे छे. आ गाथानी टीका करतां श्रीसिद्धसेनसूरिजीओ जणाव्युं छे के - "आवीई इति गाथा सूत्रे दृश्यते / न चाऽस्या भावार्थः सम्यगवगम्यते / नाऽप्यसावुत्तराध्ययनचूादिषु व्याख्यातेत्युपेक्ष्यते / " ___ परन्तु आ गाथानो उपर दर्शावेलो भावार्थ प्रवचनसारोद्धारगत मरणद्वारना निरूपण सन्दर्भे पण योग्य लागे छे तेम पू.आ. श्रीमुनिचन्द्रसूरिजीओ जणाव्युं छे. -त्रै०