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फेब्रुआरी
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पात्र देव, मनुष्य, पशु-पक्षी आदि सभी देखे जाते है । जैन कथाओं में जैन लेखकों के द्वारा तो देवों एवं मनुष्यों के साथ-साथ पशु-पक्षी ही नहि, वृक्षों और फूलों को भी रूपक बनाकर कथाओं को प्रस्तुत किया जाता रहा है। आचाराङ्ग एवं ज्ञाताधर्मकथा में कछुए की रूपक कथा के साथ-साथ सूत्रकृताङ्ग में कमल को भी रूपक बनाकर भी कथा वर्णित है । लोक परम्परा में प्रेमाख्यान के रूप में हिन्दी में तोता-मैना की कहानियां आज भी प्रचलित है, किन्तु ऐसे प्रेमाख्यान जैन परम्परा में नहीं हैं । उसमें पशु-पक्षी, पेड़पौधे, फल-फूल आदि के रूपक भी तप - संयम की प्रेरणा के हेतु ही है। जैन कथा साहित्य का सामान्य स्वरूप
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यहां यह भी ज्ञातव्य है कि जब भी हम जैन कथा - साहित्य की बात करते है वह बहु-आयामी और व्यापक है । रूपक, आख्यानक, संवाद, लघुकथाएं, एकांकी, नाटक, खण्ड काव्य, चरितकाव्य और महाकाव्य से लेकर वर्तमान कालीन उपन्यास शैली तक की सभी कथा-साहित्य की विधाएँ उसके अन्तर्गत आ जाती है । आज जब हम जैन कथा - साहित्य की बात करते है, तो जैन परम्परा में लिखित इन सभी विधाओं का साहित्य इसके अन्तर्गत आता है । अत: जैन कथा साहित्य बहुविध और बहु-आयामी है। पुन: यह कथा साहित्य भी गद्य, पद्य और गद्य-पद्य मिश्रित अर्थात् चम्पू इन तीनों रूपों में मिलता है । मात्र इतना ही नहीं वह भी विविध भाषाओं और विविध कालों में लिखा जाता रहा है ।
जैन साहित्य में कथाओं के विविध प्रकार
जैन आचार्यों ने विविध प्रकार की कथाएं तो लिखीं, फिर भी उनकी दृष्टि विकथा से बचने की ही रही है । दशवैकालिकसूत्र में कथाओं के तीन वर्ग बताये गये है अकथा, कथा और विकथा । उद्देश्यविहीन, काल्पनिक और शुभाशुभ की प्रेरणा देने से भिन्न उद्देश्यवाली कथा को अकथा कहा गया है । जबकि कथा नैतिक उद्देश्य से युक्त कथा है । और विकथा वह है, जो विषय-वासना को उत्तेजित करे । विकथा के अन्तर्गत जैन आचार्यों ने राजकथा, भातकथा, स्त्रीकथा और देशकथा को लिया है । कही-कहीं राजकथा के स्थान पर अर्थकथा और स्त्रीकथा के स्थान पर कामकथा का